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“खिड़की, लड़की, झिड़की”

कुंवर रतन सिंह

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कविता- संग्रह १. ‘खिड़की मेरे कमरे की' एक लड़की की राह काटती खिड़की मेरे कमरे की . उसकी मेरी ऐसी चाहत फूल से जैसे भँवरे की... . विषधर नागिन सी लहराती काली-काली सी अलकें, आमंत्रित करती सी आँखे- खुले-द्वार जैसी पलकें , पागल कर देती है मुझको घनी-लुनाई चेहरे की.... . गोरी-गोरी उसकी बाँहें कंठहार सी ललचाती पवन झकोरे से दिखाती जब चिकनी देह, तीक्ष्ण छाती. तीखी-मीठी प्यास जगाती उठी किनारी घँघरे की.... कामातुर होते अवतारी- मुझ संसारी की गति क्या? पल भर में उड़ जाता तिनके-सा नैतिकता का पर्दा. अब तक जीत न पाया मानव तृषा गुनगुने चमड़े की.... ***** 

khidaki

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