जब करे विद्युत
प्रवाहित नभ,
धरा की ओर तीव्रतम
गति से
अग्राह्य शोर का
स्वर ग्रहण करता
आपने देखा कृषक को
है कभी क्या ?
हाथ में थामे
कुदाल
देह पर लंगोट धारे
बूंद की हर चोट
सहता
एकाग्र मन से
चीरता धरती का
सीना
बीज बोने।
उन भुजाओं में
उछलते स्वप्न
उनके।
हमने देखे
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी
क्या
उस कृषक को?
शीत के ज्वार में
रात के अंधकार में
फसल के साथ सोते
उसे आवाज देते
जागते रहने को
कहते
भूत सी काया से
बचने।
हमने देखे
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी
क्या
कृश कृषक को?
खेत में,खलिहान मेँ।
फसल मेँ स्वाभिमान
भरते।
गहन वन के भीतर
हल के लिए किसी
ठूँठ को
ढूंढते,परखते।
हमने देखे
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी
क्या
उस कृषक के द्वार
पर,
लट्ठ थामे,मूंछ ताने।
बाँचते कर्ज के
ब्याज को
और ब्याज के भी
ब्याज को।
हाथ जोड़े उस कृषक
को
करूण स्वर मेँ
करते निहोरा,
सब न ले जा,छोड़,थोड़ा।
हमने देखे
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी
क्या
उस कृषक को,
हाथ रखे माथ पर?
हो रूआँसा क्रोध
करते भात पर
और अपने गात पर।
निहोरा कर रही
पत्नी के हर ही
बात पर ।
और मिल-जुल कर गले
देखा है क्या
रोते उन्हें
बांह मेँ बांह
डाले
आंसुओं मेँ अश्रु
घोले।
हमने देखे
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
आपने देखे कभी
क्या
उस कृषक को?
मृत्यु पर रोते,बिलखते
तेज स्वर मेँ
और कहते
आज मेरा
पाँचवाँ बेटा मरा
है।
वृषभ के वज्राघात
से
देहांत पर।
हमने देखे
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस कृषक के।
क्या पता
उस कृषक ने
जो जिया है
दुहराया जिसे है।
हम भी दुहराएँ ।
जिएँ उस भांति ही
और भांति उस ही
मरें हम।
हम हैं
उत्तराधिकारी
उस
कृश कृषक के।
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