रोज़ की तरह सुबह दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोलकर देखा तो मेरी काम वाली उर्मिला थी और उसके पल्लू के पीछे सिमटी हुई खड़ी थी एक नन्ही सी बच्ची।
“दीदी ये है लाली। मेरे भाई की लड़की है। भाभी तो रही नहीं पता ही है आपको। भाई सुबह काम पर निकल जाता है। बाकी कोई ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं तो मैं ही इसे अपने साथ ले आई। आखिर ठहरी लड़की जात, किसके ऊपर भरोसा करें। साथ ले आया करूँ इसे? मैं भी कहाँ छोड़कर आऊँगी इसको अकेले।“
मैंने कहा “यह भी कोई पूछने वाली बात है। ले आया कर यहीं। तू वैसे भी दिन भर यहीं रहती है, ये भी रह लेगी तेरे साथ। टीवी है, म्यूजिक सिस्टम है। किताबें ला दूँगी। कलर बुक और रंग भी ला दूँगी। मन लगा रहेगा इसका और कुछ लिखना पढ्ना भी सीख जाएगी।“
बच्ची के सर पर फेरने को हाथ बढ़ाया तो वह और सहम कर उर्मिला के पीछे दुबक गयी। मन भर आया मेरा। नन्ही, सहमी सी बच्ची को देखकर। माँ को मरे अभी दस-एक दिन ही हुये थे। घर से दूर, अंजान लोगों के बीच कैसा सा लगता होगा उसे?
उर्मिला ने किसी तरह उसको एक कुर्सी पर बैठाया और किचन में काम करने चली गयी। लाली मुंह नीचे किए बैठी रही। उसका ध्यान आकर्षित करने की मेरी सभी कोशिशें व्यर्थ गईं। चॉकलेट का जादू भी नहीं चला। पर बच्चों के लिए ब्रह्मास्त्र तो था ही मेरे हाथ में। कार्टून चैनल लगा दिया। सब कार्टूनों की चिल्ल-पों सुनते सुनते लाली का ध्यान भी लगने लग गया टीवी की तरफ। बीच बीच में मेरी तरफ देखती और जब पाती कि मैं उसको ही देख रही हूँ तो फिर दीवार की तरफ मुंह फेर लेती। कुछ देर बाद वापस टीवी। यह सिलसिला कुछ देर चला फिर मैं तैयार होने चली गयी। नाश्ता करने बैठी तो बहुत मनुहार के बाद भी लाली ने कुछ न खाया। कुछ बोलती भी न थी। बस टुकुर टुकुर टीवी की तरफ देखती बैठी रही।
दादी अब तक पूजा पाठ में लगी थीं। पर अंदर से ही सब बातें सुन रही थीं। पूजा से फारिग होकर बाहर निकलीं तो मुझे आँखें दिखाने लगीं। मेरी दादी मेरे साथ ही रहती हैं। मैं काम के सिलसिले में घर से दूर दूसरे शहर में रहती थी। दादी तो फिर ठहरी दादी। इस उम्र में भी घर के सब सुख आराम छोड़कर इस छोटे से फ्लैट में मेरे साथ मेरी देखभाल करने के लिए आ गयी थीं। पुराने खयालात थे तो बच्ची को दिन भर घर में रहने देने की बात उन्हें अच्छी नहीं लगी थी। मुझे किनारे बुला कर समझाने की कोशिश की पर मेरे पास इन सब बातों के लिए समय कहाँ? उर्मिला को घर के सारे काम, मेरा खान-पान,मेरी सभी आदतें अच्छे से पता थीं और वह काफी मन लगा के काम करती थी। अब बेचारी के मन को इतना संतोष देना ज़रूरी था मेरे लिए जिस से वह शांत-चित्त होकर घर का काम कर सके।
“दादी मेरी प्यारी दादी। मान जाओ न। देखो इतनी प्यारी बच्ची है। तुम्हारा मन मानेगा क्या कि ऐसी मासूम बिन माँ कि बच्ची से दिन भर के लिए बुआ का प्यार भी छिन जाए?फिर लड़की है, उसको किसके पास छोड कर आएगी उर्मिला? और उसका दिन भर यहाँ काम में मन लगेगा क्या?”
“अच्छा चल चल ठीक है, समझ गयी मैं। शुरू हुई तेरी इमोशनल ब्लैकमेलिंग। अच्छा चल अब देर हो रही है काम पर जा। रहने दे इसे यहीं।“
बस मैं ऑफिस के लिए निकल गयी। दिन भर काम के सिलसिले में इतनी उलझी रही कि सोचने का समय ही नहीं मिला कि घर पर क्या हो रहा होगा। शाम को वापस जाते समय ज़रूर कॉपी, किताबें, क्रेयान, कलर बुक और कुछ खिलौने ले लिए। घर पहुंची तो दादी ने दरवाजा खोला। थकान दिख रही थी चेहरे पर तो मैंने पूछ लिया क्या हुआ। बस मानो बाँध टूट पड़ा।
“और तीन-चार लोगों को ले आ। अनाथाश्रम बना दे इस घर को। दिन भर मुए ओग्गी और डोरेमोन को देख देख कर सर दुःख गया। चैनल बदलो तो आफत। उस लड़की की घर जाने की रट शुरू। उर्मिला बोले कुछ देर के लिए और लगा दो दादी। बुढ़ापे में यही रह गया है। घर से दूर रहो, और आराम का नाम नहीं।“
कुछ देर बड़-बड़ करती रहीं दादी। फिर मैंने कस के गले लगाया और बात बदलने के हिसाब से बोला “दादी मैं थक कर आई हूँ। न चाय-पानी, न हालचाल पूछना, न ही मेरे दिन के बारे में। बस उस एक बच्ची को लेकर बैठ गयी तुम तो।“
बस क्या था दादी गईं भागी-भागी किचन में। चाय बनाई और हमने साथ में बैठकर चाय पी। बाद में खाना खाने के समय मैंने समझाया “दादी देखो, इतनी छोटी सी बच्ची है। उस पर इतनी किस्मत की मारी। माँ का साया सर से उठ गया। भगवान ने जाने क्या सोचकर हमारे दरवाजे भेजा है। अब आ ही गयी है तो इंसानियत के नाते थोड़ा प्यार दिखा दो। आपका दिल तो वैसे ही इतना बड़ा है। मेरे हिस्से का थोड़ा प्यार लाली को भी दे दो।“
दादी की आँखें भर आयीं। बोलीं “हाँ बेटी तू सही कहती है। मन कभी-कभी बड़ा ही स्वार्थी हो जाता है। थोड़ी असुविधा क्या हुई बच्ची का इतना बड़ा दुःख भूल गयी। मेरे बालगोपाल कन्हैया जी मुझे माफ करो। आगे से ऐसा बुरा नहीं सोचूँगी। और तेरे हिस्से का प्यार क्यों? बहुत ममता भरी है इस मन में बेटी। इतने बच्चों नाती-पोतों को पाला। पड़ोसियों के बच्चों तक का ध्यान रख लेती थी। इसको भी देख लूँगी कुछ दिन। फिर अगले साल तो स्कूल जाने की उम्र हो ही जाएगी।“
“ये हुई न बात। मुझे पता ही है मेरी दादी सबसे अच्छी हैं।“ फिर हम इधर उधर की दिन भर की बातों में लग गए। और कुछ देर में बातें करते करते मेरी आँख लग गयी।
अगले दिन से फिर वही दिनचर्या। धीरे-धीरे लाली मुझसे भी घुलने मिलने लग गयी थी। मुझे बुआ बोलती, दादी को दादी। बच्ची थोड़ी खुश सी दिखने लगी थी। हफ्ते भर तो सिर्फ सुबह ही मिलती थी। हम साथ में कुछ देर खेलते। बड़ी उत्सुक बच्ची थी, हर चीज़ के बारे में पूछती रहती। “बुआ ये कबूतर रोज़ यहाँ क्यों आता है? दादी के बाल ऐसे उजले क्यों है? हम सबके तो काले हैं। बिल्ली घर में ही क्यों नहीं रहती – कभी आती है,कभी चली जाती है। मेरे साथ खेलती नहीं। ये टीवी के अंदर इतने सारे लोग कैसे आ जाते हैं? इस दीवार के पीछे सब रहते हैं क्या?” सवाल खत्म ही नहीं होते थे उसके। उर्मिला माना करती उसको कभी कभी “दीदी का दिमाग मत खा। अभी ऑफिस जाकर वैसे ही उनको दिमाग खपाना है फाइलों में।“ पर मैं उर्मिला को टोक देती कि बच्चों की जिज्ञासा पूरी करनी चाहिए तभी तो मानसिक विकास अच्छा होगा।
दादी भी हर शाम कुछ न कुछ बतातीं “आज लाली को कहानी पढ़ कर सुनाई। यह देख लेगो ब्रिक से कितना अच्छा जहाज बनाया। आज जिगसा पज़ल खुद से बना ली। आज नर्सरी राइम सिखायी लाली को। आज हम तीनों ने खूब नाच गाना किया। स्लेट और चॉक ला देना उसके लिए उसको लिखना भी सिखा देती हूँ।“ वगैरह वगैरह। छुट्टी के दिन मैं घर में होती तो कविता सुनना, नाच गाना दिखाना यह सब कार्यक्रम चलते रहते। मैं भी खुश थी कि सब खुश थे।
ऐसे दो-तीन महीने बीत गए। इधर कुछ दिनों से कुछ तो अजीब लग रहा था मुझे। कभी-कभी लाली कुछ बोलने को होती तो उर्मिला या दादी बात बादल देते या उसको टोक देते। मुझे भी उत्सुकता होती कि जानूँ क्या छुपाया जा रहा है। पर समझ नहीं आता। पूछती तो टाल देते कि ऐसा कुछ नहीं है। फिर एक बार शनिवार के दिन मैं बाहर से सामान खरीद कर वापस आई थी। उर्मिला ने दरवाजा खोला तो हंसी छुपा रही थी। दादी और लाली भी हंस रहे थे और कुछ तो छुपा रहे थे।
“क्या शैतानी सूझ रही है तुम सबको? कुछ तो बात है। क्या छुपाया जा रहा है मुझसे?”
“कुछ नहीं दीदी, बैठो तो, मैं पानी ले आऊँ।“ इतना कहकर मुझे हाथ पकड़कर सोफ़े पर बैठा दिया। तभी दादी के इशारे पर लाली ने धीरे से अपने नन्हें हाथों में थामी स्लेट आगे की। स्लेट पर लिखावट देखकर आँखें भर आयीं और मैंने लाली और दादी दोनों को एक साथ बाहों में भींच लिया।
आज लाली ने अपने नाम का पहला अक्षर लिखना सीख लिया था।