कार्यालय में हिन्दी पखवाड़े के दौरान हुयी प्रतियोगिताओं का पुरस्कार वितरण समारोह था। समारोह में हर वर्ष हम कुछ नयी रूपरेखा लेकर आते हैं। इस वर्ष मैंने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया था जिसमे प्रतिभागी टीमों को एक शब्द दिया गया था और उस शब्द पर टीम को एक कहानी सोचकर लघु नाटिका की प्रस्तुति करनी थी। समय सीमा थी 15 मिनट। एक टीम को शब्द मिला सिपाही। उस पर टीम ने जो प्रस्तुति की वह रोचक और हास्य से भरपूर होने के साथ साथ एक बड़ा संदेश भी दे गयी।
प्रस्तुति शुरू हुयी सूत्रधार से। सूत्रधार ने दो सिपाहियों के विषय में बताया - एक हिंदुस्तानी तथा एक पाकिस्तानी। दोनों के पास मनोरंजन का साधन था एक-एक रेडियो। अकेले पेट्रोलिंग करते करते मन न ऊबे इसके लिए दोनों हैडफोन लगा कर अपनी अपनी चौकी पर रेडियो सुनते रहते। मज़े की बात यह थी कि दोनों के रेडियो पर भारत का रेडियो नेटवर्क ही आता था और दोनों भारतीय खबरें ही सुनते थे।
सीन 1 : रेडियो पर खबर आती है "कामरान खान वेंकट प्रसाद की बॉल पर आउट हो गए।" यह सुनते ही पाकिस्तानी सिपाही गोलीबारी शुरू कर देता है। भारतीय सिपाही भी जवाबी कार्यवाही शुरू कर देता है।
सीन 2: रेडियो पर ब्रेकिंग न्यूज़ "तानिया अख्तर की शादी हुयी शोएब मिर्ज़ा से।" सुनते ही भारतीय सिपाही गोलीबारी शुरू कर देता है और ज़ाहिर सी बात है पाकिस्तानी सिपाही भी जवाबी हमला कर देता है।
सीन 3: रेडियो पर गरमा गरम बहस चल रही है। भारत में बीफ के नाम पर एक मुसलमान को मार दिया गया, एक पाकिस्तानी गायक को धमकी दी गयी कि वह अपना कार्यक्रम रद्द करे तथा एक और पाकिस्तानी लेखक की पुस्तक के विमोचन में किसी दल ने खलल डाला तथा पूरा कार्यक्रम चौपट कर दिया। बस क्या पूछना था। वापस दोनों पक्षों में गोलीबारी शुरू।
सीन 4: रेडियो पर वापस से एक बहस चल रही है। इस बहस में कोई भी मीडिया वाला नहीं है। हैं तो बस चंद आम आदमी तथा पुलिस और प्रशासन के लोग। इस बहस में खुलासा होता है कि बीफ नहीं बल्कि कुछ आपसी विवाद और रंजिश के कारण वह आदमी मारा गया था, गायक ने खुद ही निजी कारणों से कार्यक्रम रद्द किया था और विमोचन में खलल प्रकाशकों की खुद की चाल थी जिस से किताब को और पब्लिसिटी मिल सके।
यह सुन कर दोनों तरफ के सिपाही समझ जाते हैं कि असली बात कुछ है नहीं। बस मीडिया का फैलाया झूठा मामला है। दोनों गले मिलते हैं और आपसी लड़ाई भूल जाते हैं और नाटक यहीं खत्म होता है।
यह तो काफी सीधा और साधारण उपाय है दोनों पक्षों में सुलह करवाने का और यह काम इतना आसान है नहीं। परंतु इस प्रस्तुति ने मेरे समक्ष कई सवाल खड़े कर दिये।
मीडिया का झूठी खबरों को बढ़ा चढ़ा कर बताना, इक्के-दुक्के वैयक्तिक मामलों को सांप्रदायिक रूप दे देना, किन्ही राजनीतिक कारणों से जहां सीधा सादा सा घटनाक्रम हो उसको ऐसा चक्रव्यूह बना के दिखला देना कि अच्छे अच्छों की बुद्धि घूम जाए - शायद इन्ही कारणों से हमें देश में ऐसा माहौल बना दिख रहा है। अन्यथा ऐसा कभी हो सकता है कि मेरे और आपके जैसे मध्यवर्गीय लोगों ने कभी भी ऐसी किसी परिस्थिति का सामना न किया हो? मैंने अपने सभी मित्रों से पूछा पर किसी के साथ न कभी ऐसी घटना हुयी है और न ही उनके किसी जानने वाले के साथ।
ऐसा लगता है आजकल हर किसी में होड़ लगी है देश तथा देशवासियों और खासकर हिंदुओं को असहिष्णु सिद्ध करने की। मैं कभी भी धर्म और अपनी धार्मिक पहचान को लेकर कुछ खास चेतन नहीं थी। ठीक है तीज त्योहार मनाए, व्रत रखे पर इन सबका ज्यादा मतलब इसलिए था कि बचपन से यह सब देखते आए हैं और यह जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। परंतु आजकल के रोज़ रोज़ के प्रहारों को देख-सहकर मेरे मन में भी हिन्दुत्व की एक भावना जागृत होने लग गयी है। वैसे हम सब विदेशी कंपनी के हर उत्पाद का इस्तेमाल करेंगे। परंतु पतंजलि का विरोध ज़रूर करेंगे क्योंकि वह एक हिन्दू बाबा की संस्था है। यह एक अलग ही विषय है तथा इस पर चर्चा फिर कभी।
तो विषय जिस से मैं कुछ भटक गयी यह था कि कहीं न कहीं हिंदुओं को असहिष्णु दिखाने की मीडिया में होड़ लग गयी है। इस देश का तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताना बना इसलिए टूटने लगा है कि अब हिन्दू भी आवाज़ उठाने लगे हैं। जितना देखती पढ़ती हूँ उतना ही मेरे इस विचार की और पुष्टि होती जाती है। हर कोई उठता है और कह देता है कि देश असहिष्णु हो चला है, हिन्दूवादी सरकार है इसलिए हिन्दू असहिष्णु हो चले हैं।
जब इसी देश में मुहर्रम के कारण दुर्गा विसर्जन को दो दिन तक रोक दिया जाता है, जब इसी देश के किसी कोने में धर्म विशेष कि भावनाओं को चोट नहीं पहुँचने के लिए हिंदुओं को दुर्गा पूजा करने की अनुमति नहीं दी जाती, जब इसी देश में दुर्गा या गणेश विसर्जन के लिए जाते हुये लोगों पर पथराव होता है एक धर्म विशेष के लोगों द्वारा और मीडिया कुछ भी नहीं कहता, जब इस देश के लोगों ने जिन्हें सर माथे पर बैठाया हुआ है वह कलाकार डंके की चोट पर कहते हैं कि देश का माहौल रहने लायक नहीं रह गया, जब इस देश में बहुसंख्यक समाज ही खुद को दीन हीन महसूस करने लगता है तब भी लोगों को लगता है असहिष्णुता बढ़ रही है।
बस इतना ही कहना चाहूंगी ऐसे सभी लोगों से जिन्हें लगता है कि असहिष्णुता बढ़ रही है और देश का माहौल रहने लायक नहीं रह गया - ज़रा आस पास नज़र घूमा कर देख लें कि ऐसा कौन है उनके इर्द गिर्द जो ऐसा कुछ कर रहा है कि देश का माहौल खराब हो रहा है और सबको देखने के बाद एक बार आईना भी देख लें। शायद कुछ जवाब मिल जाए।