इससे पहले कि जगत बाबू के मान-सम्मान पर लगे बट्टे की आग का उठता धुआँ उनके आँख-कान से होता हुआ फेफड़ों में घुसकर साँस लेना दूभर करता, उन्होंने गाँव-समाज से सदा के लिए मुँह मोड़ते हुए अपने बोझिल कदम शहर की ओर बढ़ा लिए। वे बस मैं बैठकर खिड़की से दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों पर अपनी सूनी आंखे गड़ाये सूर्यास्त होते देख रहे थे। सूरज पहाड़ियों की ऊँची-ऊँची चोटियों से होता हुआ धीरे-धीरे निचली घाटियों में छुपने जा रहा था। आकाश में कुछ उमड़ते-घुमड़ते बादल सूरज की अन्तिम किरणों के पड़ने से रक्तरंजित दिखाई दे रहे थे, जो आपस में लुका-छिपी खेल रहे थे। धीरे-धीरे सूर्यास्त हो चला। जगत बाबू फिर भी आँखों में शून्यता लिए एकाग्रचित होकर उसी ओर अपनी दृष्टि गड़ाये हुए थे। उन्हें अपने जीवन का सूर्य भी अस्त होता दिखाई दे रहा था। देखते-देखते पहाड़ियों में घुप अँधेरा गहराया तो वे अपने वजूद को तलाशते हुए वही-कहीं गुम हो गए।
जगत बाबू एक बड़े शहर के सरकारी विभाग में बड़े बाबू की हैसियत से नौकरी कर रहे थे। उनकी पत्नी गांव में तो उनकी एकलौती लाड़ली बेटी उनके साथ रहकर पढ़ाई कर रही थी। बेटी को पढ़ने में किसी बात की दिक्कत न हो इसके लिए उन्होंने उसके अच्छे से अच्छे खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने की पूरी व्यवस्था कर दी थी। वे उसे डॉक्टर बनाने का सपना पाले थे। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। लड़की अभी १२वीं पास कर कोचिंग ज्वाइन कर एमबीबीएस एंट्रेंस परीक्षा की तैयारी कर ही रही थी कि वह वहीँ पढ़ाने वाले एक कोचिंग टीचर के प्यार में ऐसी खो गयी कि वह पढ़ाई भूलकर उसके साथ घूमने-फिरने लगी। वे दोनों थोड़ी देर कोचिंग में रहते और फिर देर शाम तक इधर-उधर खाते-पीते और घुमते-फिरते घर पहुँचते। लेकिन कहते हैं न 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' बस फिर क्या किसी परिचित ने आकर जगत बाबू को इसकी खबर क्या सुनाई कि उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। उन्होंने जो शहर आकर पढ़ने वाले बच्चों के प्यार-वार के चक्कर में भटकने के बारे में सुना था और जिस बात को लेकर वे डरते थे, क्या वही उनके साथ हो गया, ऐसा सोचकर वे बड़े हैरान-परेशान हो उठे। उन्हें यह प्यार का चक्कर फूटी आंख नहीं भाता था। उन्हें रह-रह अपनी बेटी की इस हरकत की बारे भी भरी गुस्सा आ रहा था। वे बेसब्री से उसका इंतज़ार कर कभी ये कर दूंगा, वो कर दूंगा , ऐसा सबक सिखाऊंगा, सोचते तो कभी गंभीर विचारों में डूब जाते।
उस शाम जैसे ही बेटी घर आयी तो उन्होंने अपनी मान-मर्यादा का वास्ता देकर उसे नरम-गरम दोनों पैतरें आजमाकर समझाया तो बेटी ने स्थिति की गंभीरता को भांपकर मांगी मांगते हुए आगे ऐसा न करने का वादा किया तो उन्होंने उसे नासमझी में उठाया पहला कदम समझकर माफ़ कर दिया और खुद राहत की साँस ली। कुछ दिन सबकुछ अच्छा चलता देख वे बेफिक्र होने लगे, लेकिन तब उनकी बेफिक्री उनपर बड़ी भारी पड़ गई, जब उन्हें एक दिन देर रात आकर उनके एक रिश्तेदार ने सूचना दी कि उनकी बेटी को उन्होंने उनके मित्र सुरेश के लड़के साथ बस में बैठकर भागते देखा है। यह सुनते ही वे सन्न रह गए, काटो तो खून नहीं। वे गहरी चिंता में डूबकर सोचने लगे कि इससे पहले की यह खबर रिश्तेदारों और गांव वालों तक पहुंचे, उन्हें बात दबाकर रखनी होगी, नहीं तो जीवन भर की कमाई मान-सम्मान की दौलत से वे हाथ धो बैठेगें, जो उनसे हरगिज बर्दास्त नहीं होगा। जगत बाबू कुर्सी में बैठे-बैठे गंभीर होकर विचारमग्न थे, क्या करें, क्या न करे, उनके सामने गंभीर समस्या थी, कुछ सूझ नहीं रहा था। अचानक उन्हें याद आया कि खबर देने वाले ने सुरेश के लड़के का जिक्र किया था तो वे आग बबूला होकर सुरेश को कोसने लगे। सोचने लगे उन्हें उससे ऐसी उम्मीद न थी कि वह उनके साथ ऐसा बर्ताव करेगा। उसे कभी अँधेरे में रखेगा।
चूंकि सुरेश का घर जगत बाबू के घर से महज २-३ मील की दूरी पर था, इसलिए वे घर पर ताला डालकर पैदल-पैदल निकल पड़े। चलते-चलते उनके मन में दुनिया भर की ऊंच-नीच चलती रही, जिससे उनके कदम भारी पड़ने लगते। उन्हें रह-रह कर इस बात की भारी चिंता सता रही थी कि कहीं उन्होंने जो मान-सम्मान कमाया है, वह सब धूल-धूसरित न हो जाय। ऐसी दशा में उनकी यह मान-सम्मान की चिंता करना जायज थी। क्योंकि उन्हें उनके नाम से ज्यादा गांव और उसके आस-पास के लोग जन कल्याणकारी कार्यों की बदौलत जानते-पहचानते थे। वे हमेशा शहर में कर्म और गांव में आत्मिक रूप से जुड़े रहे। उनका शहर से ग्राम सुधार के कामों के लिए गांव आना-जाना लगा ही रहता था। वे हर समय तन-मन और धन से समाज सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने अपने दम पर दौड़-धूप करके ऐसे-ऐसे काम करवाए जो बडे़ से बड़े नेता के बस में भी न था। उनमें खोखले आदर्श वाले नेता के नहीं बल्कि सच्चे अर्थों वाले नेता के तमाम गुण मौजूद थे, तभी तो हर जगह उन्हें उनके नाम से नहीं बल्कि नेता के नाम से जानते-पहचानते और सभी उन्हें 'नेताजी' कहकर ही पुकारते थे। उनके ग्राम सुधार के कामों की लम्बी फेहरिस्त थी- उन्होंने गांव में स्वास्थ्य समस्या के हल के लिए गांव के पास ही अस्पताल खुलवाया तो गांव में लोगों को दूर-प्रदेश में रहने वाले उनके घरवालों की खैर-खबर, रूपया-पैसा, चिट़ठी-पत्री आदि आती-जाती रहे, इसके लिए पोस्ट-ऑफिस खुलवाया। गांव के नौनिहाल पढ़ने से वंचित न रहे, इसके लिए गांव में आँगनबाड़ी खुलवाया और पास गांव के पास ही प्राइमरी स्कूल का निर्माण करवाया। गांव में आपसी मेल-मिलाप और सामाजिक कार्य सुचारू रूप से चलते रहे, इसके लिए ग्रामवासियों के साथ मिलकर पंचायत भवन का निर्माण करवाया। सभी उनका भरपूर आदर-सम्मान करते थे। वे समाज की सेवा के लिए समर्पित व्यक्ति थे। दुनियाभर की बातों में उलझते-सुलझते जैसे ही वे अपने मित्र सुरेश घर के बाहर पहुंचे और उन्होंने देखा कि सुरेश भी जैसे कहीं हड़बड़ी भी कहीं जाने की फ़िराक में है, तो उनका माथा ठनका। वे जैसे ही सुरेश के करीब पहुंचे थे कि जल्दी से सुरेश ने दबी आवाज में -"आओ जगत बाबू, अंदर चलकर बात करते हैं।" कहते हुए उनका हाथ पकड़कर उन्हें घर के अंदर कर दिया। सुरेश की इस जल्दबाजी को भांपकर जगत बाबू को यह समझते देर नहीं लगी कि उनके मान-सम्मान पर बट्टा लगाने वाला इसी ही बेटा है और यह बात ये अच्छे से जानता था तो वे भड़कते हुए बोले- "कमीने! तेरे साथ बैठना-उठाना बहुत हुआ, अब तू सीधे से बता कि तूने मेरी बेटी को कहाँ भगवा कर छुपा रखा है?" बात न बिगड़े इसलिए सुरेश ने संयत होकर समझाना चाहा -" नहीं यार, मुझे भी अभी घरवालों ने बताया कि ऐसा कुछ हो गया है तो मैं खुद ही तुम्हारे पास आ रहा था। मैं तो खुद हैरान हूँ उसने यह कदम कैसे और क्यों उठाया। यदि ऐसी कोई बात थी तो वह मुझे या किसी भी घर के सदस्य को बता सकता था। जाने क्या सोचकर वे भाग गए! सोच यार, मेरी भी एक बेटी है, जिसका मुझे भी तो एक दिन रिश्ता तय करना है। ऐसे में सोच तो जरा मैं भला क्यों तुम्हारी बेटी को कहीं छुपा कर समाज में अपना और तुम्हारा नाम ख़राब करूँगा?"
"नहीं, तेरी ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातों से मैं सहमत नहीं, ऐसे कैसे हो सकता है कि तुझे तेरे बेटे ने कभी कुछ नहीं बताया होगा? आखिर इतनी बड़ी बात तूने मुझसे क्यों छुपाई?" जगत बाबू भड़कते हुए बोले तो सुरेश ने फिर बताना शुरू किया-"हाँ यार, उसने बहुत पहले बताया तो था कि वह किसी लड़की से प्यार करता है और शादी करना चाहता है, लेकिन तब मैंने उसे बहुत डाँट-फटकार लगाई और फिर उसी दिन से हमने उसके लिए लड़की देखना भी शुरू कर दिया था।" फिर कुछ सोचकर बोले -" शायद यही बात उसे अच्छी नहीं लगी और उसने यह कदम उठाया होगा?"
उसकी बात सुनकर जगत बाबू कुछ देर चुप रहे और कुछ सोचकर बोले - "अगर ऐसी बात थी तो तुमने आकर मुझे क्यों नहीं बताई? सब गलती तुम्हारी है?
"और तुम्हारी कोई गलती नहीं? सुरेश बोले तो जगत बाबू तुनकेे-" इसमें मेरी कौन सी गलती है?"
"तो क्या, तुझे तेरी बेटी ने इस बारे में कुछ नहीं बताया?"
"हां, बताया तो था?"
"तो तुम भी तो यह बात मेरे घर आकर बता सकते थे?"
"मैंने थोड़े पूछा था कि किसका लड़का है, मुझे क्या पता था कि वह तेरा लड़का होगा? मुझे तो आज ही इस बात की खबर मिली।
"तो मुझे भी आज ही तेरे अभी आने के बाद पता चला कि वह तेरी लड़की थी? समझे। सुरेश ने बताया तो जगत बाबू ने चुपी साध ली।
अब दोनों अपने-अपने विचारों में डूब गए। मामला शांत होते देखे सुरेश की पत्नी ने दोनों को भोजन की थाली परोसी तो जगत बाबू ने पहले तो मना किया लेकिन जब सुरेश ने भी उनके भोजन न करने पर खुद भी भूखा रहने की बात सामने रखी तो वे तैसे-तैसे भोजन करने के लिए तैयार हुए। अब भोजन करते-करते दोनों ने विचार-विमर्श किया कि वे दोनों का एक-दूसरे से विवाह करा देंगे, जिससे उनकी मित्रता में भी बरक़रार रहे और समाज में भी उनका जो मान-सम्मान है, उसपर बट्टा न लगे। जगत बाबू और सुरेश दोनों देर रात तक इधर उधर अपने नाते-रिश्तेदारों से पता लगाते रहे, लेकिन जब कहीं से भी कोई खबर न मिली तो दोनों ने हैरान-परेशान होकर जैसे-तैसे मिलकर एक साथ रात काटी। सुबह जब गांव से उन दोनों के पहुँचने की खबर आयी तो उनकी सांस में सांस आयी।
दोनों ने शहर से उसी दिन गांव की ओर कूच किया और गांव पहुंचकर आनन्-फानन में पंडित को बुलवाकर उनसे दो दिन बाद का मुहूर्त निकलवाकर दोनों की शादी का अपने सभी नाते-रिश्तेदारों और आस-पास के जान-पहचान वालों को न्यौता भिजवा दिया।
जगत बाबू के लिए यह शादी किसी अग्नि परीक्षा से कम न थी। इसलिए उन्होंने उसमें पास होने के लिए शादी में आये सभी मेहमानों की खातिरदारी में कोई कमी नहीं छोड़ी। बाराती और घरातियों के लिए एक से बढ़कर पकवान बनाकर खिलाए और जब उन्होंने सबका मान-सम्मान रखते हुए सबकुछ ठीक ठाक होते देखते हुए लड़की को विदा किया तो तब उन्हें लगा कि मान-सम्मान की इस अग्नि परीक्षा में वे पास हो गए। लेकिन वे समाज को समझने की भूल कर बैठे, वे भूल गए की यहाँ तो सीता माता को भी अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा और फिर वनवास भुगतना पड़ा। जब ऐसे ही इधर-उधर से बढ़ा-चढ़ाकर बहुत सी बातें उन्हें ऐरे-गैरे, नथू खैरे तक सुनाने लगे तो वे बड़े विचलित हुए और वे समझ गए कि उनके मान-सम्मान पर जो बट्टा लग चुका है, वह उन्हें अब यहाँ जीने नहीं देगा। भारी मन से वे अपनी पत्नी को साथ लेकर उस गॉंव को जहाँ उनकी आत्मा बसती थी, जिसके लिए वे दिन-रात मरते-खपते रहते थे, सदा-सदा के लिए छोड़ने का विचार कर शाम की बस से चुपचाप शहर की ओर निकल पड़े।