दीपक का एक सहपाठी नन्दू गांव से आठवीं पास करके अपने एक रिश्तेदार के साथ मुम्बई चला गया था। दो वर्ष के बाद जब वह गांव वापस आया तो उसे देखकर दीपक अचंभित रह गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा कि क्या सचमुच यह वही नंदू हैं, जो कभी उसके साथ फटेहाली में पढता और खेला-कूदा करता था। उसके रंग-ढंग और बदले मिजाज देखकर वह उससे बड़ा प्रभावित हुआ। उत्सुक होकर वह उसके पास जाकर बोला-“यार नन्दू तू तो एकदम से बदल गया है, मैं तो तुझे पहचान ही नहीं पाया?“ और फिर उसे गले लगाते हुए बोला-“क्या सूट-बूट पहने हैं तूने और देखो तो तू कितना मोटा-ताजा हो गया है रे। जरा ये तो बता कि यह सब कायापलट कैसे हो गई तेरी?
“अरे! यार मेरी छोड़, तू पहले अपनी सुना कि कौन सी कक्षा में पहुंच गया है तू और तेरी पढ़ाई-लिखाई और खेती-पाती कैसे चल रही है।“ नन्दू जरा रौब जमाते बोला तो दीपक को थोड़ा गुस्सा आया। वह सोचने लगा कि साला ठीक ढंग से बात करने को भी तैयार नहीं है। मेरे सवालों का सीधा जबाब भी नहीं दे रहा है। अब जब मैं शहर जाऊंगा तो तब उससे बड़ा बनकर उसकी सारी हेकड़ी एक ही बार निकाल दूंगा। वह अपने गुस्से को रोकते हुए शांत होते हुए बोला- “अरे यार! अपनी क्या, वही ढाक के तीन पात वाली बात है। अब तुझसे क्या छिपाऊं क्या बताऊँ। दिनभर काम ही काम। दसवीं तो पास हो गया हूंँ। खेती-पाती में लगा रहता हूंँ, लेकिन तू तो जनता ही है कि खेती से कितना गुजर-बसर होता है। घर में बूढे़ दादा और मां के साथ ही एक बहिन ही तो है, बस उनकी ही चिन्ता है कि वे अच्छे से कैसे रहें।“ फिर जैसे उसका मुआयना करते हुए कहने लगा-“ अरे तुझे देख मैं भी सोच रहा हूँ कि क्यों न मै भी किसी बड़े शहर जाकर अपनी किस्मत आजमा कर देख लूं। बहुत हुआ दसवीं, अब ज्यादा पढ़-लिख के भी क्या होगा।“
उसकी बातें सुनकर नन्दू ने उसे शहर का चमत्कार दिखाना शुरू किया- “सुन यार दीपक तू मेरा सबसे अच्छा दोस्त है, इसलिए मेरी बात सुन, छोड़ ये सब खेती-पाती और दुनियादारी के लफडे और शहर चला मेरे साथ, तू तो मेरे से भी ज्यादा पढ़ा है। इसलिए तेरे को मेरे से भी अच्छी नौकरी मिल ही जायेगी। आखिर सोच यार, मैं जब तक गांव में था कैसा रहता था, क्या दशा थी।“ और फिर अपनी ओर देखते हुए बोला- “अब तो तू देख ही रहा है मुझे और मेरे घरवालों को। मैं वहां और वे यहां गांव में खुश है।“ और फिर उसका मन टटोलते हुए बोला- “बता, क्या मैं गलत कह रहा हूँ।
“ये सब बातें तो सही है, किन्तु घर में तब कौन खेती-बाड़ी का काम संभालेगा। दादा जी तो बूढे़ हो चले मां और छोटी बहिन क्या-क्या करेगी?“ दीपक सोचते हुए बोला।
“अरे यार देख! अगर तू शहर चला जायेगा न, तो घर में तब भी काम ऐसा ही चलता रहेगा। वैसे भी देख यार, कितनी भी मेहनत कर लो, आखिर क्या मिलता है खेती-पाती से। आधे से अधिक सामान तो बाजार से ही खरीदना पड़ता है। फिर क्या फायदा इतना मरने-खपने से। नन्दू ने स्पष्ट किया।
“कहता तो तू ठीक है यार, पर जब दादा और मां मानेगी न। अगर उन्होंने न कही तो फिर।“
“तो फिर क्या? यहीं सब घुट-घुट के मरते-खपते रहना।“ नन्दू ने ताव में आकर कहा।
“अरे यार तू गुस्सा क्यों करता है। अपनी तो मजबूरी है न, दादा जी और मां का कहा तो मानना ही पड़ेगा।“ दीपक बुदबुदाया।
“देख यार, मैंने तो तुम्हारी घर के हालातों को देखकर ही तुम्हें समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। फिर आगे तुम्हारी मर्जी। अब मैं कुछ नहीं कहूंगा। तेरे मन जो आए कर।“ नन्दू यह कहता हुआ अपने घर की ओर निकल पड़ा।
नन्दू के जाने के बाद दीपक बहुत देर तक सोचता रहा। वह उसकी चमक-दमक और उसके घरवालों की बदली तस्वीर से बहुत प्रभावित था। इसलिए उसने नन्दू के साथ न जाकर दिल्ली जाने का इरादा बना लिया। वह अपने घर के आंगन में बैठे-बैठे दूर-दूर पहाड़ियों की चोटियों पर नजर गड़ाये जाने क्या-क्या सोचता रहा। उसकी आंखों में नन्दू की चमक-दमक और उसका बदला रूप बार-बार नजर आ रहा था। दीपक की मां और दादा जी ने जब उसे यूं उदास होते बैठे देखा तो वे चिंतित हो उठे। जब उसके पास जाकर दादा ने पूछा- “अरे बेटा, तू यहाँ बैठे-बैठे क्या सोच रहा है?“ तब बुझे मन से दीपक ने सपाट जवाब दिया- “कुछ नहीं दादा जी।“ उसका जवाब सुनकर दादा को संतुष्टि नहीं मिली, उन्होंने आगे जानना चाहा-“ कुछ न कुछ बात तो जरूर है बेटा, पर तू बताने में हिचकिचा रहा है।“ और फिर जब उन्होंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए- “अच्छा बता, क्या बात है?“ तो उसने हिम्मत दिखाते हुए अपनी बात रखी-“ दादा जी, मैं दिल्ली जाना चाहता हूँ। वहां जाकर कुछ पैसे कमाना चाहता हूँ, जिससे घर की माली हालत में सुधार आयेगा।“
दीपक की बात सुनकर उसका दादा ने आशंका जताई- “बेटा यह तू क्या कह रहा है। अभी तू बच्चा है और फिर दिल्ली अपने गांव जैसा थोड़ी ही है, जहाँ तुझे झट से नौकरी मिल जाएगी“ किन्तु दीपक दिल्ली जाने की जिद पर अड़ा रहा तो उसकी बातें सुनकर दादाजी बहुत गंभीर हो गए। वे सोचने लगे- मैं भी बचपन में दिल्ली जाकर खूब पछताया था। वहां का रंग-ढंग और स्वार्थी लोगों ने मेरा कितना शोषण किया था, वह मैं कैसे भूल सकता हूँ। वहां न ढंग की नौकरी और नहीं रहने की जगह मिलती है। दीपक तो अभी बच्चा है अगर वहाँ अकेला जायेगा तो कहां रहेगा? क्या करेगा? अगर कहीं रात को भटकता रहा और पुलिस वालों ने चोर समझ थाने में बंद कर दिया तो फिर कौन है उसका जो उसे छुड़ाने आयेगा। यह सब सोचकर उन्होंने दीपक को समझाने का प्रयास किया- “देख बेटा, तूने आज दिन तक तो शहर देखा नहीं है और नहीं वहां के लोगों को तू जानता है। अगर तू शहर में भटक गया और रात को पुलिस वालों ने पकड़ लिया तो फिर वहां की पुलिस को तू नहीं जानता। सीधे थाने में बंद कर इतना कूटते हैं कि अच्छे खासे लोग उनसे दूर भागते फिरते हैं। और माना ऐसा कुछ नहीं हुआ तो सोच तुझे जाते ही कौन नौकरी पर लगा देगा। याद रखना वह शहर है, गांव नहीं, जहाँ गांव जैसे सीधे-साधे लोग मिलना न के बराबर मिलते हैं।“
बहुत सी बातें समझाने के बाद भी जब दीपक ने अपनी जिद नहीं छोड़ी तो उन्होंने उसके दिल्ली जाने के लिए पैसों का इंतजाम किया। वे उसका दिल नहीं तोड़ना चाहते थे। दूसरे दिन दिल्ली जाने से पहले दादाजी ने उसे शहर के बारे में अनेक हिदायतें देकर भारी मन से विदा किया। वह अपने दादा और माँ का आशीर्वाद लेकर गांव के गलियारों से निकलकर चहकता कूदता, मचलता और सीटी बजाता बाजार पहुंचा। वह इतना खुश था जैसे उसे मनोवांछित फल मिलने वाला हो। पहली बार शहर देखना और पहली बार इतना लम्बा सफर तय करना दीपक के लिए नया अनुभव था। वह गांव के बाजार में बैठा बस का इंतजार करने लगा। बस समय पर नहीं आई तो दीपक उतावला होने लगा वह लोगों से बार-बार पूछ बैठता कि गाड़ी कब आयेगी, तो लोग उसकी हंसी उड़ाते। बस अपने निर्धारित समय से 1 घंटे देर से जैसे ही बस स्टेंड पर पहुंची, तो दीपक उत्सुक होकर फुर्ती से चढ़कर सीट पर बैठ गया। बस चलने लगी तो वह बस की खिड़की से पहाड़ी वादियों में में खोने लगा। उसे मनोरम पहाड़ियों के बीच बहुत दूर दिखते चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ उसके अपने पहाड़ी लोग जैसे नजर आ रहे थे। पहाड़ियों के बीच से उसे सुदूर हिमालय पर्वत चमकता दिखाई दे रहा था। जंगल का रास्ते में घने पेड़ों के बीच हिरन, चीते, भालू और बंदरों का झुण्ड विचरण कर रहे थे। दीपक आश्चर्य से कभी इन जंगली जानवरों को तो कभी रंग-बिरंगे पंछियों को देखकर खुशी के मारे उछल पड़ रहा है।
गाड़ी कभी उतार-चढ़ाव में धीरे-धीरे तो समतल में सरपट भागी जा रही थी। कभी-कभी ऊबड़-खाबड़ रास्ता आने पर उसके बैग और उसपर धूल-धकड़ आ गिरती, लेकिन उसे तो दिल्ली की लगन लगी थी, इसलिए वह बेफिक्र था। जैसे ही एक छोटे शहर में बस रूकी तो वह झट से वहाँ उतरा और उसने दिल्ली जाने वाली बस की पूछताछ की तो उसे पता चला कि बस शाम को चलेगी जो रात को 2 बजे दिल्ली पहुंचेगी। थोड़ी देर एक जगह बैठकर उसने घर से पैक खाना निकालकर खाया और फिर इधर-उधर घूमकर वह शाम को दिल्ली की बस में बैठ गया।
दीपक दिल्ली जाने वाली बस में बैठा-बैठा और जब वह चलने लगी तो वह खिड़की से दिल्ली के रास्ते की सुन्दरता दूर-दूर तक देखने लगा। उसे दूर-दूर लाइटों की कतार दिख रही थी। समतल सड़क पर बस तेजी से आगे बढ़ रही थी। अब उसे गर्मी भी कुछ ज्यादा महसूस होने लगी। जैसे-जैसे वह दिल्ली के नजदीक पहुंचा उसे गर्मी और सतानी लगी। लेकिन वह कर भी क्या सकता था। रात लगभग अपने निर्धारित समय 2 बजे वह बस अड्डे पर पहुंच कर उतरा तो वहां बसों की कतारें देखकर दंग रह गया। अब कहाँ से वह बाहर निकले, कुछ सूझ नहीं रहा था। वह बड़ी मुश्किल से बाहर का रास्ता ढूंढ पाया। जैसे ही वह बाहर आया तो उसकी नजर वहीं बस अडडे के ऊपर बने हाॅल पर अटकी तो उसने वहीं रात गुजारने की सोची और फिर वह वहां दूसरे लोगों के बीच जाकर सो गया। थका होने से उसे ऐसी नींद आई कि सुबह जब इधर-उधर हो-हल्ला होने लगा तो वह वह हड़बड़ा कर उठा और अपना सामान लेकर चांदनी चैक की ओर निकल पड़ा। वह आश्चर्य से उधर-उधर देख रहा था। सैकड़ों बस, कार, स्कूटर, साइकिल, रिक्शे, आॅटो और सामान ढोने वाली गाड़ियों की भीड़ सब उसके लिए नए-नए थे। वह जैसे ही रेड लाईट आती, घबड़ा जाता कि अब वह कैसे रास्ता पार करें, सूझता नहीं था। गर्मियों का मौसम और लू के थपेड़ों की परवाह किए बिना वह इधर-उधर लोगों से पूछकर काम की तलाश में भटकता रहा, लेकिन उसे मालूम न था कि शहर में इतनी जल्दी बिना जान पहचान के उसे काम पर रख दे, या काम दिलवा दे। पूरा दिन यूं ही भटकते-भटकते बीत गया तो रात को वह छोटे से होटल में खाना खाकर एक पार्क में रात बिताने के इरादे से घुसा और जैसे ही वह वहां एक बेंच पर बैठकर अपनी स्थानीय बोली में गाना बुदबुदाने लगा तो वहां के चैकीदार की नजर उस पर क्या पड़ी कि वह चिल्लाया- “अबे वो मोहम्मद रफी के बच्चे, इस समय यहां क्या करने आया है।“
आवाज सुनकर दीपक चैंका, किन्तु उसने हाथ जोड़कर विनती की- “साहब आज ही गांव से आया हूँं, इसलिए रहने का कोई ठिकाना नहीं है तो सोचा यहीं आज रात काट कर फिर सुबह निकल जाऊँ।“
“अबे किसने कहा तुझे, यहां रात काटने को। चल भाग यहां से, दफा हो जा फौरन, बाप का राज है क्या, भाग अभी, नहीं तो पुलिस बुलाकर उनके हवाले कर दूंगा।“ यह कहते हुए चैकीदार ने उसे निर्ममापूवर्क धक्के मारते हुए गेट के बाहर कर दिया। गेट से बाहर आकर दीपक को दादा जी की बातें याद आने लगे कि वे सच ही कहते थे कि शहर में बहुत बेदर्द मिलते हैं। रात बहुत हो चली तो उसने सड़क किनारे अपना बैग रखा और चार ओढ़कर सो गया। दिनभर का थक्का हारा होने से जल्दी ही नींद ने उसे अपने आगोश में ले लिया। वह भूल गया कि वह दिल्ली में है। वह कुछ कुछ घंटे ही सोया था कि सहसा एक तेज तर्रार आवाज से उसकी नींद में खलल पड़ी, उसने चादर से ओट से जैसे ही झांककर देखा तो उसे कुछ ही दूरी पर एक पुलिस की जीप दिखाई दी, जो उससे थोड़ी दूर आकर रूक गई। वह डरकर भागना चाहता था, क्योंकि उसने पुलिस के बारे में बहुत कुछ उल्टा-पुल्टा सुन रखा था, किन्तु वह करता क्या, चुपचाप वहीं दुबका रहा। इतने में जीप में बैठे एक े सिपाही ने उसकी ओर इशारा करते हुए अपने दूसरे साथी से कहा- “वो देखो! एक चोर का बच्चा वहां दुबक कर बैठा है, चलो उसकी खबर लेते हैं।“
“छोड यार! तेरे को जब देखो जैसे सावन के अंधे को सबकुछ हरा भरा ही दिखता है, वैसे ही सब लोग चोर दिखाई देते हैं।“ और फिर उसने उसकी ओर देखकर कहा- “होगा कोई भूला-भटका बेचारा।“
“नहीं यार, क्या बात करता है, ऐसा नहीं है, हां, कभी-कभार हो जाता होगा, लेकिन यहां मैं गलत नहीं, मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि यह कोई चोर ही है।“ और फिर वह अकड़कर बोला- “ऐसे ही तो मैं पुलिस इंस्पेक्टर थोड़े ही बन गया।“
“तुम्हें पूरा विश्वास है कि वह चोर ही है।“
“हां, मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि वह चोर ही निकलेगा।“
“और अगर न निकला तो?“
“तो फिर क्या, लगी शर्त, जो तू कहेगा मैं वही करूंगा।“
“पक्का, है न?“
“हां भई हां पक्का। मैंने जो बोल दिया पत्थर की लकीर।“
“तो फिर अगर तुम्हारी बात गलत निकली तो तुम्हें कल थाने के पूरे स्टाफ को चाय-नाश्ता कराना पडे़गा।“ इंस्पेक्टर का साथी बोला।
“मुझे मंजूर है, अब चल और इसकी तलाशी शुरू कर, फिर देख इस चोर के पास से क्या-क्या मालपानी मिलता है।“ इंस्पेक्टर बोला और वे दोनों जीप से उतरकर दीपक के सामने खड़े हो गए। यह देखकर दीपक बहुत घबरा गया। इंस्पेक्टर ने उसके सामने अपनी छड़ी घुमाई और बड़े सख्त लहजे में कहा- “ये छोकरे! बता इतनी रात गए यहां क्या रहा है?।“
“जी कुछ नहीं।“ दीपक ने हड़बड़ाते हुए जबाब दिया।
“अबे बोलता है, कुछ नहीं, तो फिर यहां क्यों है, तेरा घर-बार नहीं है क्या?“
“साहब, मैं यहां सो रहा था, आज ही गांव से आया हूं, इसलिए रहने का कोई ठिकाना नहीं मिला तो यही सो गया।“
“अच्छा तो श्रीमान जी तेरा यहां कोई घर नहीं है? और तू आज ही गांव से आया है? रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं है, यही बात है न?“
“जी सर, यही बात है।“ दीपक थोड़ा सहज होकर बोला तो इंस्पेक्टर गुराया- “अबे कहता है, जी सर यही बात है। अबे तेरे जैसे बहुत मिलते है रोज, ऐसी कहानियां सुनाते हुए। झूठा कहीं का।“
“नहीं सर, मैं कोई चोर नहीं हूं, आप चाहे तो मेरी तलाशी ले सकते हैं।“ दीपक ने थोड़ा साहस दिखाया तो इंस्पेक्टर ने अपने साथी की ओर गर्व से मुड़ते हुए कहा- “देखा, आया न साला अब लाईन पर, कहता है मैं चोर नहीं हूं, हर चोर पहले यही तो कहता है।“ और फिर देखो अब मैं दिखाता हूं कहकर उसने उसकी तलाशी ले डाली तो तो उसे कपडे-लत्तों के अलावा केवल दो सौ रूपए व एक मामूली घड़ी ही मिल पायी। लेकिन इंस्पेक्टर साहब को अपनी इंस्पेक्टरी दिखाने का शौक जो था और फिर वह अपने साथी से शर्त भी नहीं हारना चाहता था, इसलिए उसने अपने साथी को उसकी घड़ी और रूपए दिखाते हुए कहा- “देखा यार, तू कहता था न यह चोर नहीं है। और मुझे यकीन था कि यह चोर है और आखिर में यह चोर ही निकला। अब तू शर्त हार गया।“ इंस्पेक्टर ने अपनी चतुराई दिखाई तो उसके साथी को भी अपनी भड़ास निकालने का मौका मिला- “हां यार, तुझे तो मानना ही पड़ेगा, तभी तो हम से पहले तू प्रमोशन पा गया। नहीं तो तुम्हें भी हमारी तरह पीछे-पीछे घूमना पड़ता।“ और फिर दोनों खिलखिलाकर हंसने लगे।
दीपक से बहुत मिन्नते की, समझाने की कोशिश की, लेकिन वे कहाँ मानने वाले थे। वे उसे जीप में बिठाकर थाने की ओर निकल पड़े। दीपक यह सब देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह अपने दादा जी की एक-एक बताई बातें याद करने लगा। वे हिदायतें जिन्हें वह निर्मूल समझ रहा था, हकीकत बनकर उसके सामने आएंगे, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। वह यह सोच रह-रहकर सुबक-सुबक कर रोने लगा। उसे एक ओर जहां गांव के सीधे-साधे, भोले-भाले लोगों की बातें याद आ रही थी तो दूसरी ओर पुलिस वालों की बेदर्द और सख्त छबि डरा रही थी। दीपक इस स्थिति में कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था कि तभी उसका ध्यान जीप में एक सिपाही के साथ बैठे एक डरे-सहमे लड़के पर गई। उसने उसे गौर से देखा तो उसके हाथ और पैरों पर चोट के निशान देख वह पुलिस वालों की इस करतूत को समझ गया। उस लड़के के बारे में सोचकर दीपक का मन बड़ा विचलित हुआ और उसने तय किया कि इससे पहले कि उसके साथ भी ऐसा कुछ सलूक हो, वह उन्हें चकमा देकर भाग खड़ा होगा। कहते हैं जब बच्चे मुसीबत में होते हैं तो उन्हें सबसे ज्यादा याद मां की आती है, दीपक भी अपनी मां को याद करने लगा, इतने में उसे मुसीबत के समय काम आएगी, ऐसा कहकर उसकी मां की थैले में रखी मिर्ची का पाउडर का ख्याल आया तो उसका चेहरा खिलखिला उठा। उसने फौरन मिर्ची का पाउडर थैले से निकालकर हाथ में पकड़ लिया और फिर जैसे ही जीप थाने के गेट के सामने रूकी और उसने देखा कि इंस्पेक्टर और उसके साथी बातों में मशगूल है तो उसने फुर्ती से वह पाउडर उनके आंखों में झौंक दी और अवसर देखकर वहां से जीप में बैठे दूसरे लड़के का हाथ पकड़कर भाग खड़ा हुआ। अचानक हुए अप्रत्याशित हमले से इंस्पेक्टर और उसके साथी आंखे मलते हुए उसे पकड़ो-पकड़ो करके चिल्लाये तो थाने में बैठे सिपाही इधर-उधर देखने लगे, लेकिन उन्हें कोई नजर आया। दीपक भागने में सफल रहा, इंस्पेक्टर और उसके साथियों की आंखे लाल हो गई और वे जलन के मारे रात भर परेशान होकर उसे कोसते रह गए।
दीपक का साहसिक कारनामें को देखकर जीप में बैठा वह दूसरा लड़का बहुत खुश हुआ। वह उसे शहर की गलियों से होकर अपने दोस्त के घर ले गया, जहां उसके लिए दोनों ने मिलकर उसे चाय-नाश्ता कराया और उसके बाद एक दूसरे कमरे में एक मुलायम मोटे गद्दे वाले बेड पर आराम करने को कहा तो उसे लगा जैसे ईश्वर ने उसकी मुराद सुनकर उसे दो अच्छे दोस्तों से मिला दिया। बहुत देर तक तीनों की आपसी बातचीत चलती रही, जिससे दीपक को ज्ञात हुआ कि वे भी उसी की तरह शहर में पैसा कमाने के लिए आए हैं और किराए के मकान में मिलकर रह रहे हैं। गांव की खटिया में चादर बिछाकर सोने वाला दीपक जब मोटे गद्देदार बेड पर लेटा तो उसे ऐसी स्वर्गिक आनंद की अनूभूति हुई कि वह देर सुबह तक सोता रहा। सुबह जब उसके साथियों ने उसे जगाया और गरमागर्म चाय पिलाई तो वह भावविभोर हो गया। जल्दी से उसने हाथ-मुंह धोया और चाय पीते-पीते कीचन और घर का निरीक्षण किया। यद्यपि कीचन छोटा था, लेकिन वहां चमचमाते स्टील के गिलास, बर्तन और कटोरी आदि बड़े व्यवस्थित ढंग से रखे हुए थे। कमरे में उन दोनों के एक से बढ़कर एक आकर्षक कपड़े और कुर्सी-टेबल आदि भौतिक सामान देखकर उसका मन भी ऐसे ही सुख की कामना में गोते लगाने बैठ गया।
दीपक के दोनों दोस्तों ने सबसे पहले सुबह उसे नाश्ता कराया और फिर जैसे ही उसे सबसे पहले दिल्ली घुमाने के बारे में बताया तो वह खुशी से ऐसा उछला जैसे उसकी कोई मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो। लेकिन जब उसने अपने इन साथियों को नए-नए आकर्षक कपड़े पहनते देखा तो वह अपने फटे-पुराने कपड़ों की तरफ देखकर मायूस हो गया। उसका मायूस चेहरा देखकर उसके साथियों को समझते देर नहीं लगी तो उन्होंने उसे भी सुन्दर कपड़े पहनने को दिए तो उसने मन ही मन उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। आज दीपक दिल्ली की सैर करेगा, यह सोच-सोच कर उसके खुशी का ठिकाना न था। वे तीनों तंग गलियारों से निकलकर बस स्टेंड पर आए और बस का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद जब बस आई तो दीपक के दोनों साथी तो फुर्ती से उसमें चढ़ गए, लेकिन दीपक अनुभव न होने के कारण चढ़ते समय बस की सीढ़ियों पर लुढ़क गया। यह देखकर जैसे-तैसे उसके एक साथी ने गिरते-गिरते उसे बचाया और फिर दूसरे साथी ने अपनी सीट पर उसे बिठाया तो दीपक ने राहत की सांस ली। वह बस की खिड़की से बैठे-बैठे दिल्ली की मोहक छबि में खो गया। बहुत देर बाद जब ठसाठस भरी बस में दीपक ने उन दोनों को खड़ा पाया तो वह उन्हें उनकी जगह बैठने को कहने लगा तो वे दोनों मुस्कुराते हुए बोले, “अरे नहीं यार, तू बैठ, तु अभी नया-नया है और तुझे ऐसी भीड़भाड़ वाली बसों में सफर करने की आदद थोड़ी है, हमें तो इनकी आदद सी पड़ गई। “ और फिर यह कहते हुए खिलखिलाकर हंसने लगे कि, “यही तो हमारी शान बढ़ाते है।“ दीपक को उनकी बातें समझ नहीं आई और सच तो यह था कि इस समय वह किसी भी बात को समझने के चक्कर में सैर का मजा किरकिरा करने की फिराक में न था।
उसके साथियों ने उसे एक बस से दूसरे बस में सफर कराते हुए दिल्ली के बहुत से दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करा दिया और फिर शाम को लौट आए। दीपक दिल्ली की सैर कर बहुत खुश था। सफर की थकान उतारने के लिए तीनों ने आराम किया और फिर जब दीपक के साथियों ने उसे होटल में ले जाकर स्वादिष्ट भोजन कराया तो दीपक के मुंह में अलसुबह तक स्वाद का रस घुलता रहा।
अगली सुबह दीपक के एक साथी ने उससे पूछा- “यार, अब तू ये बता कि तू यहां नौकरी करेगा या कोई धन्धा?“ तो उसने कुछ सोचकर कहा- “यार, कोई अच्छा धन्धा मिल जाए तो फिर नौकरी करने की क्या जरूरत, सुना है शहरी धन्धे से आदमी जल्दी पैसा वाला बन जाता है?“ उसने सवाल किया तो उसके दोनों साथियों ने, “बिल्कुल सही सुना है तुमने“ एक साथ जवाब दिया।
दीपक ने जब उनसे धन्धे के बारे में बात की तो एक दोस्त बोला-“ यार देख, तू घर से यह सोचकर ही आया है न कि तू और तेरे घर वाले सुख-चैन से रहें।“ उसने हां कहा तो उसने आगे कहा- “तो फिर यह सब तभी संभव होगा न जब तू दो पैसे कमाएगा, है कि नहीं?“
“हां यार, यही सोचकर तो आया हूँ।“ दीपक ने सीधा सरल जवाब दिया तो एक साथी ने-“ तो तू भी हमारे धन्धे के गुर सीखकर हमारी तरह ऐश कर, एक से भले दो और दो से भले तीन।“ यह कहकर उसे आश्वस्त किया तो दूसरे ने- “एक बात याद रखना हमारी हमारे धन्धे की जो बखत है वह तुझे नौकरी में कभी नहीं मिलने वाली, जिन्दगी के फुल मजे हैं इसमें।“ कहते हुए दूसरे साथी ने उसे आगाह किया।
दीपक को उनकी गोल-गोल बातें समझ नहीं आ रही थी तो वह उनसे बोला-“आखिर बताओ तो सही, धन्धा क्या है? “तो वे दोनों चहकते हुए एक साथ बोले-“ धन्धा है सरपट कट कर सरपट भाग।“ “समझा कि नहीं “ एक साथी ने कहा तो उसने सीधे सपाट शब्दों में जबाब दिया-“ नहीं यार, तुम्हारी ये गोलमोल बातें मेरी समझ से परे हैं“
“अरे यार, तू भी गांव का गंवई बना रहेगा कि कुछ समझेगा भी कभी।“ एक ने कहा तो दूसरे से स्पष्ट किया- “सीधी सी बात है बसों में घूमते-घामते पैसे वालों की जेबें साफ करना।“
“जेब काटना, अरे भई ये भी कोई धन्धा है, न बाबा न बाबा।“ दीपक को मां और दादा के दिए संस्कार याद आए। वह आगे बोला- “अरे भई, हमारे खानदान में ऐसे घटिया धन्धे के बारे में सोचना भी गुनाह है, फिर मैं ऐसा काम करूंगा, हरगिज नहीं।“ उसने दृढ़तापूर्वक कहा तो एक साथी बोला-“ तो भाग जा वापस गांव? शहर क्यों आया है? तेरी बस की बात नहीं यहां ईमानदारी से पैसा कमाना और अपने घर को सुखी देखना। घटिया धन्धा कहता है साला?“
“देख दीपक आज जो कुछ भी तू देख रहा है न हमारे ठाठ-बाट वह सब हमारे इसी धन्धे की बदौलत है। पहले हम भी तेरी तरह सोचते थे, हमने भी कई जगह नौकरी कर के देखी, नौकरी क्या गुलामी समझ ले, लेकिन तू नही ंसमझेगा अभी। हमने तो यहां आकर जब दुनियादारी देखी तो आखिर में हमें यही एक अपना धन्धा जमा, जिससे हम आज खुश है, यह तू देख रहा है न?“ दूसरे ने सफाई दी।
दोनों ने मिलकर दीपक को बहुत समझाया, लेकिन दीपक के संस्कारों ने उसे इसकी स्वीकृति नहीं दी। उसने बहुत सोच-विचार कर उन्हें अपना निर्णय सुनाया कि वह कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लेगा, लेकिन यह जेबकतरी का धन्धा नहीं करेगा। जब बहुत समझाने के बाद भी वह न माना तो उन्होंने इधर-उधर से पता करके उसे एक फैक्टरी में नौकरी पर लगवा दिया।
दीपक नौकरी पाकर बहुत खुश हुआ। फैक्टरी उसके जेबकट साथियों के घर से बहुत दूर थी, इसलिए उसके साथियों ने अपनी जान-पहचान से उसे किराए से फैक्टरी के पास ही एक कमरा भी दिला दिया, तो उसने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। अब फैक्टरी में उसे बहुत काम करना पड़ता था, लेकिन उसके बदले जो तनख्वाह मिलती, वह इतनी कम थी कि उसमें उसको अपना ही घर चलाना भारी पड़ने लगा। जैसे-तैसे हर 100-200 हर माह बचाकर गांव भेजता। ऐसे में उसे अब शहर की चकाचैंध में अपनी रंगत फीकी होती दिखाई देने लगी। उसने फैक्टरी में ओव्हरटाईम भी करके देखा लेकिन इससे भी वह कोई बचत नहीं कर पाता, वह जिन अरमानों की गठरी लादकर शहर लेकर आया था कि वह एक दिन नन्दू से बड़ा बनके दिखाएगा, वह धूल-धूसरित होने लगा। उसे ईमानदारी और बड़ी मेहनत से फैक्टरी में नौकरी करते-करते 3 वर्ष बीत गए, लेकिन उसकी आमदनी अठन्नी और रूपया खर्चा जैैसी स्थिति बनी रही। सबकुछ यूं ही चलता जा रहा था, लेकिन जब उसने फैक्टरी में ऐसे लोगों को देखा, जो कामचोर होने के बाद भी मालिक की चचमागिरी, जी हुजूरी करके उसके सिर पर आकर बैठने लगे तो यह बात उसे इतनी नागुजार लगी कि उसने नौकरी छोड़कर गांव जाकर अपनी खेती-पाती सँभालने का मन बना लिया।
यद्यपि जब इस बात का पता उसके जेबकट दोस्तों को पता चली तो उन्होंने एक बार फिर उसे समझाने की नाकाम कोशिश की, लेकिन उसके घर से मिले संस्कारों ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी तो, उसने शहर का मोह त्यागकर गांव की राह पकड़ ली।