महंगाई का फंडा..!
मित्रों ये उस वक्त का संस्मरण है जब मैं स्नातक होनें की प्रक्रिया में था..!
अक्टूबर माह की हल्की हल्की सर्दियों वाली एक शाम में अपनें मित्रों के साथ मैं #गंजिंग कर रहा था..तब (या शायद अब भी) लखनऊ के हज़रत गंज में शाम को घूमना लखनऊ वासियों का प्रिय शौक हुआ करता था, कुछ कुछ स्टेटस सिम्बल दर्शाने जैसा..तो हम सब कुछ न खरीदते हुये भी खरीदनें का अभिनय करते घूम रहे थे।
सड़क के दोनों तरफ के फुटपाथ पर सैंकड़ो फुटकर पटरी दुकानदार हाँथो में हैंगर पकड़े, उनपर कपड़े,बेल्ट,रूमाल,फैंसी सामान आदि लटकाये बेचते हुये इधर से उधर टहल रहे थे।
तभी हमारे एक मित्र ऐनक बेच रहे लड़के के पास रुक गये। वो लड़का जिन चश्मों को बेच रहा था उनपर उस समय की प्रतिष्ठित कंपनी #रे बैन का लोगो अंकित था।
दाम पूछा गया..500 रुपये..बाप रे..! हम तीनों मित्रों का मुँह खुला का खुला रह गया..हम अवाक से हो गये। ख़ैर हिम्मत करके एक मित्र बोला..अबे सही बताओ..! जवाब आया ..आप ही बता दें कितना देंगे? मित्र बोले..50 रुपये..ये असली #रे बैन का तो है नहीं, असली फुटपाथ पर तो नहीं बिकता..!बेचने वाले लड़के ने अंतिम रूप से 150 रुपये के दो ऐनक देना स्वीकार किया। उसी समय हमारी वार्ता का क्रम भंग हुआ एक हॉर्न की आवाज़ से..हमारे ठीक पीछे एक कार रुकी और उसमें से एक युवक ने सिर बाहर निकाल का उसी ऐनक बेच रहे लड़के से दाम पूछा..500 रुपये..उस कार सवार युवक ने तुरंत अपनी जेब से 500 रुपये निकाल कर उसे दिये और ऐनक लेकर कार आगे बढ़ा दी..हम औचक उसे देख रहे थे..थोड़ी शर्म, थोड़ी उलझन और थोड़े गुस्से से..हमारी कम आमदनी और मोलभाव करनें के व्यवहार पर ज़ोरदार तमाचा था ये! वो ऐनक बेचनें वाला लड़का हमें जिस भाव से देख रहा था वो हम व्यक्त ही नहीं कर सकते..!
कमोबेश नागरिकों की माली हालत में ये भिन्नता हमेशा विधमान रहती है पर मैं तब भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ..कि महँगाई है कहाँ..सम्पन्न के लिये कभी भी नहीं और विपन्न के लिये हमेशा..! जो ऐनक बेचने वाला लड़का दिनभर में कार वाले एक या दो लोगों को ऐनक बेचकर अपना काम चला लेगा, वो भला हमारे जैसे मोलभाव करनें वालो के चक्कर मे क्यों पड़ेगा ?
आज भी महंगे कपड़े, महंगी शिक्षा, महंगा मनोरंजन, महंगा इलाज़, महंगी यात्रा, महंगे सामाजिक आयोजन बदस्तूर जारी है..जबकि इसके बग़ैर भी जीवन चलता है चलता रहेगा..!
करुणेष वर्मा जिज्ञासु