मैं हुं ही एक किताब सी,
हर आने जाने वाला पढ जाता।
कोई मुझे सौक से पढते,
किसी की मजबूरी है,
किसी की मैं लत हुं,
किसी से बनी अपनी दूरी है,
आखिरकार मैं हुं ही एक किताब-सी।
किसी को समझ में आई,
किसी के जहन में आई,
किसी के सिर के उपर की बात,
ऐसा है अपना अंदाज,
आखिरकार मैं हुं ही किताब-सी।
किसी की तारीफ मिली,
किसी की दुआएं,
किसी ने ले ली बलाई,
कोई कह गए जुग जुग जियो मेरे लाल,
आखिरकार मैं एक किताब सी जो ठहरी,
कुछ शब्द मुझमें भी घिसे पिटे हैं,
कुछ अक्षर भी मिटे हैं,
संभव नहीं की हर में सब अच्छाई हो,
अच्छे बुरे का मेल है मुझमें,
थोड़ा शब्दों का खेल है मुझमें,
जितना फैलाती शब्दों को ,
बनती जाती संग्रहणीय हर बार,
बनने की चाहत किताब की,
रह आखिरकार मैं रह जाती किताबों पन्ने हर बार
हुं तो आखिर किताब का हिस्सा ही न ।