हमने अपने खुश होने का दायरा बहुत ही सिकोड़ लिया है, हमने अपनी ख़ुशी को दूसरों की सोच पर निर्भर कर लिया है, दूसरों के द्वारा किये गए स्वयं के प्रति जो व्यव्हार किया जाता है या जो सुना या कहा जाता है उसे ही हम खुश या दुखी होने का कारन समझ लेते हैं, ये कितनी बड़ी विडम्बना है, बचपन में हमारे काल्पनिक पात्र खेल खिलौने भी हमें कभी दुखी अनुभव नहीं करते थे, क्योंकि वो हम ही हैं जो अपनी ख़ुशी उन कल्पनाओं के साथ के साथ साझा करते थे। ख़ुशी हमारे स्वयं के अंदर होती है .