अब वह समय कहां जब हमें अपनी परंपरा और संस्कृति के बारे में जानकारी लेने की बड़ी जिज्ञासा रहती थीं । अपने माता- पिता, दादा- दादी, नाना- नानी से अपने संस्कृति से जुड़ी हुईं तमाम जानकारियां इकट्ठा किया करते थे, वे लोग भी हमें अपने पौराणिक ग्रंथों एवम पौराणिक कथाओं से अवगत कराते थे। जहां भूतपूर्व में हमे दादा- दादी की गोदी में बैठकर रामायण,महाभारत तथा अन्य कई समाज उपयोगी कथाएं सुनाई जाती अब फोन के आने से उनका स्थान इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर, स्नैपचैट आदि तमाम साधनों ने ले लिया है। अब दादा दादी घर के एक कौने में पड़े मानों अपनी मौत का बेसब्री से इंतजार कर रहे हो क्योंकि उनसे कोई बात ही नही करता। सब अपने अपने फोन में ऐसे घुसे रहते हैं मानों इस से कोई अमृत की धारा निकलती हो। माता- पिता को खुद से फुर्सत नहीं तो भला अपने बच्चों के लिए कहां से समय होगा कि वे उन्हें कुछ सीखा सखे। हम आधुनिकता के ऐसे दौर में आ चुके हैं जहां अब लोगों को एक दूसरे के कष्टों का निवारण करने की बात तो दूर उसके कष्टों को सुनना तक नही चाहते। हालांकि आधुनिकता को स्वीकार करना चाहिए लेकीन क्या आधुनिकता को इस प्रकार स्वीकार करना चाहिए कि हम अपनी परंपरा और संस्कृति को ही भूल जाए। वर्तमान में माता पिता स्वयं में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें अपने बच्चों के पास बैठने तक की फुर्सत नहीं है, उन्होंने उनकी देखभाल करने के लिए दाई या नौकरानी रखने की जरूरत पड़ने लगी है। यदि कोई माता पिता घर में रहते भी या जब कभी आते भी है तो अब उनका असल में वे बच्चे से ज्यादा लगाव अपने फोन की तरफ होगा, मां बच्चे को समय पर दूध पिलाना या खाना खिलाना भूल सकती है लेकीन फोन को चार्ज करना नही भूलेगी क्योंकि ये फोन ही तो है जो अब बच्चे की कमी भी पूरी कर रहा है। अब सोचने वाली बात ये है कि जब माता पिता खुद ही फोन में घुसे रहेंगे तो भला अपने बच्चों को क्या ही रोकेंगे बल्कि अब तो ये धारणा भी बन चुकी है कि जब खाना खिलाना है बच्चे को तो सामने फोन रखकर उसमें कोई वीडियो या शॉर्ट्स दिखा कर ही निवाला पेट में जाएंगा अन्यथा नही । अब उन्हें ये कौन समझाएं कि पहले स्वयं तो फोन के बीना थोड़ी देर रहे तब बच्चा रहेगा न। अब रिल्स का जमाना चल गया जहां देखो वहां रील्स के रोगी बैठे हुए हैं। चाहे बड़ा, बूढ़ा हो या बच्चा सबको रिले बनानी है और देखनी भी है और न जाने क्या क्या देखने लगे हैं।
वही अगर 4- 5 वर्ष के बच्चो से उनके पौराणिक ग्रंथों के बारे में पूछे तो उनसे कोई जानकारी नहीं मिलेगी, बच्चे ही क्यों युवाओं की भी यही स्तिथि है , फुर्सत कहां है भला अब रामायण महाभारत जैसे ग्रंथों को पढ़ने की अब तो उनसे बेहतर ग्रंथ जो आ गए हैं ये।
कुछ कहते हैं समय के साथ परिवर्तन जरूरी है, मैं भी मानता हूं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है किंतु प्रकृति में भी कुछ ऐसी चीजे है जो स्थाई रूप में विद्यमान हैं तो फिर हम मनुष्य अपनी परंपरा और संस्कृति की नीव को क्यों खोते जा रहे हैं। यदि हम अपने बच्चों को बचपन से रिल्स कैसे बनाते हैं सिखाने के बजाए अपनी आत्मरक्षा कैसे करते हैं ये सिखाने लगे तो कैसे किसी बहन,बेटी के साथ कोई हैवान अपनी हैवानियत को हावी होने देगा और कोई भी अपराध क्यों होंगे वही अपने बेटों को अच्छे एवम पौराणिक ग्रंथों महाभारत, रामायण आदि को पढ़ाए ताकि उनमें बचपन से ही नारी की इज्जत एवम उनका आदर सम्मान किस प्रकार करना है ये भाव मरते दम तक विद्यमान रहना चाहिए। लेकीन ये तभी संभव है जब हम आधुनिकता को अपनाते हुए अपनी परंपरा और संस्कृति को न भूले और समय समय पर अपने बच्चों के लिए समय निकालकर उन्हें अपने धार्मिक ग्रन्थों एवम अपनी संकृति से रूबरू कराते रहें क्योंकि ऐसा न हो कि हम सब आधुनिकता की चपेट में आकर अपने संस्कारों को भूलते जाए।
अत: सोच विचार अवश्य कीजियेगा कि हमको खाना खाते समय अपने अपने फोन में घुसे रहना है या परिवार के साथ बैठकर खाने का आनन्द प्राप्त करना है। क्योंकि बहुत खुशनसीब होते हैं वो लोग जिनके पास परिवार होता है और उस से भी ज्यादा खुशी तब मिलती है जब उस परिवार के साथ बैठकर एक दूसरे के साथ समय व्यतीत किया जाए न कि अपने ही घर में अजनबी की तरह हमेशा बस फोन में ही लगे रहें जैसे ही काम से फुर्सत मिली और फोन चालू। अपने बच्चे को निडर एवम सशक्त बनाना है या फिर शॉर्ट्स और रिल्स बनाने वाला बनाना है। मैं ये बिलकुल नहीं कह रहा कि ये सब मत कीजिए, आपकी इच्छा है जो चाहे वो कीजिए लेकीन अपने संस्कारों को ध्यान में रखते हुए अपनी परंपरा और संस्कृति को मत भूलने दीजिए। अपने बच्चों को अवगत करवाइए की हमारे धार्मिक ग्रन्थों में इन फोन के तमाम साधनों से अच्छी जानकारी मिलेगी। यदि किसी को फोन की इतना ही लत लगी है तो अब तो तमाम चैनलों में हमारे पौराणिक ग्रंथों एवम कथाओं का मंचन किया जा रहा है चाहे वह रामायण हो या महाभारत। ये दो ऐसी पुस्तके है जिनकी जानाकारी हम सबको हर हाल में होनी ही चाहिए । ये सब पढ़ने को प्रेरित कीजिए अन्यथा बड़े होने पर कोई पूछे तो उन्हें वहां ये बोलकर खुद और आपकों भी शर्मिंदा न होना पड़े कि हमें तो हमारे माता पिता ने इस बारे में कभी कुछ बताया ही नहीं। अत: हमारी परंपरा और संस्कृति की इज्जत हमारे अपने हाथों में है। अब तय हम सबको करना है कि उसे बचाए रखना है या भरे बाजार में नीलाम होने देना है।