पहले २६ जनवरी यानी गणतंत्र दिवस का दिन करीब आता तो मन राजधानी दिल्ली के 'इंडिया गेट' के इर्द-गिर्द मंडराने लगता था। तब घरतंत्र से दो चार नहीं हुए थे। बेफिक्री से घूम-फिरने में एक अलग ही आनंद था। गणतंत्र दिवस की गहमागहमी देखने इंडिया गेट के आस-पास रहने वाले किसी करीबी नाते-रिश्तेदार के यहां १-२ दिन पहले ही आ धमकते। घर परिवार और फिर गाँव से लेकर देश-विदेश में रह रहे अपने-पराये सबकी खैर-खबर का जो क्रम चल पड़ता तो कब आधी रात बीत जाती पता ही नहीं चलता। गणतंत्र दिवस के दिन तो घुप्प अंधियारे में ही कड़कड़ाती ठण्ड से बेखबर दल-बल के साथ इंडिया गेट की ओर कूच कर जाते थे। वहां अग्रिम पंक्ति में पड़ाव डालकर समारोह को आदि से अंत तक बिना टस से मस हुए देखकर ही दम लेते। जब समारोह समाप्त होता तो वहां से बतियाते-गप्पियाते पैदल-पैदल घर पहुँचते। घर पहुँचते ही मोहल्ले भर को भी आँखों देखा हाल सुनाकर ही दम लेते। अब तो जब से घरतंत्र सँभाला है, जिंदगी की आपाधापी के बीच टेलीविजन पर ही घर-परिवार के लिए चाय-नाश्ते की तैयारी के बीच-बीच में झलकियाँ देखकर ही तसल्ली करने के आदी हो चुके हैं।
गणतंत्र दिवस गया तो घर के बगीचे की छोटी सी क्यारी में खिली वासंती फूलों से लदी सरसों ने वसंत के आगमन की सूचना मुझ तक पहुँचाई। गाँव में वसंत की सूचना तो प्रकृति के माध्यम से सहज रूप से मिल जाती है लेकिन शहर में वसंत को तलाशना आसान काम नहीं है। इसी वासंती रंग की तलाश में मैं २६ से ३० जनवरी तक लोकसंस्कृति के रंगमंच लोकरंग की प्रस्तुतियां देखने भेल दशहरा मैदान पहुंची। वहां मुझे लोक पारम्परिक कलाओं में संस्कारों और कलाओं में बांस की महिमा का सुन्दर चित्रांकन देखने को मिला तो विश्वास हो चला कि शहर में भी वसंत का आगमन हो चुका है। विभिन्न राज्यों के लोक कलाकारों, विदेशी नृत्य प्रस्तुतियों और बांस कला संसार में मन यूँ डूबा कि हर शाम कदम बरबस ही लोकरंग की ओर खिंचे चले जाते। मोहक रंगमंच के साथ रंग-बिरंगे परिधानों से सजे लोक कलाकारों की सधी प्रस्तुतियां में डूबा मन कविवर बिहारी के वासंती दोहे जैसा दिखने लगा- "छबि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गन्ध। ठौर-ठौर झूमत झपट, झौंर-झौंर मधु अन्ध ।।"
लोकरंग में अपनी पारंपरिक लोकसंस्कृति से सबका दिल जीतने वाले इन लोक कलाकारों की कृतियों, नृत्यों, गीतों को देख सुनकर, यह महसूस ही नहीं होता है कि जातिदंश की पीड़ा या श्रम विशेष में व्याप्त शोषण, उत्पीडन, घोर कष्ट भरे यातनामय जीवनचर्या जीते लोगों की अभिव्यक्ति इतनी सुन्दर स्वस्थ भी हो सकती है, जो आज भी थके हारे मन को तरोताजगी से भरने में आधुनिक मनोरंजन के साधनों से कहीं भी उन्नीस नहीं है। वसंतोत्सव की मंगलकामनाओं सहित ..
Published on Jan 31, 2017
लोकरंग उत्सव लोक कलाओं को अक्षुण्य रखने का एक जीवंत सांस्कृतिक परम्परा है। इस वर्ष भेल दशहरा मैदान में 26 से 30 जनवरी तक आयोजित लोकरंग में लोक पारम्परिक कलाओं में संस्कारों और कलाओं में बांस की महिमा का सुन्दर चित्रांकन देखने को मिला।
Published on Jan 31, 2017
लोकरंग उत्सव लोक कलाओं को अक्षुण्य रखने का एक जीवंत सांस्कृतिक परम्परा है। इस वर्ष भेल दशहरा मैदान में 26 से 30 जनवरी तक आयोजित लोकरंग में लोक पारम्परिक कलाओं में संस्कारों और कलाओं में बांस की महिमा का सुन्दर चित्रांकन देखने को मिला।