कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस से शुरू होकर भाई दूज तक मनाया जाने वाला पांच दिवसीय सुख, समृद्धि का खुशियों भरा दीपपर्व ’तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् 'अंधेरे से प्रकाश की ओर चलो' का संदेश लेकर आता है। अंधकार पर प्रकाश का विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाईचारे व प्रेमभाव का संदेश फैलाता है। त्यौहार, पर्वादि हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं, जिनके बिना हमारे भारतीय जनमानस की खुशियाँ अधूरी व जिन्दगी बेरौनक है। त्यौहार हो या कोई भी पर्व ये सिर्फ ईश्वरीय पूजा या जमाने के साथ चलने का माध्यम मात्र नहीं है, अपितु इनके मूल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भागभवेत, के साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना निहित है।
धनतेरस: दीपावली के दो दिन पहले धनतेरस मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान धन्वन्तरि समुद्र में से अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, अतः इस दिन आरोग्य एवं दीर्घायु की कामना के लिए इनकी पूजा की जाती है। धनतेरस के दिन बाजारों में बड़ी रौनक रहती है। इस दिन बरतन खरीदना सबसे शुभ माना जाता है। प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता और सामथ्र्य अनुसार बरतन खरीदता है। इसी दिन सायंकाल प्रदोष काल में आटे का दीपक बनाकर घर के बाहर तुलसी या मुख्यद्वार पर एक पात्र में अनाज रखकर आयु की रक्षा के लिए वैदिक देवता यमराज के निमित्त दक्षिण की ओर मुह करके ‘मृत्युना पाश्हस्तेन कालेन भार्यया सह। त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यजः प्रीतयामिति’ मंत्र का उच्चारण कर दीपदान किए जाने का विधान है।
नरक चतुर्दशी: नरक चतुर्दशी को रूप चतुर्दशी और छोटी दीपावली के नाम से भी मनाया जाता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण से देव तथा मानवों को यातना देने वाले दैत्य नरकासुर का वध कर उसके बंदीगृह की 16 सहस्त्र राजकन्याओं को मुक्त किया। अतः यह पर्व दुष्ट लोगों से रक्षा तथा उनके संहार के उद्देश्य से मनाया जाता है। इस दिन श्रीकृष्ण की पूजा कर इसे रूप चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन पितृश्वरों का आगमन हमारे घरों में होता है, अतः उनकी आत्मा की शांति के लिए यमराज के निमित्त घर के बाहर तेल का चैमुख दीपक और सोलह छोटे दीए जलाकर अपने ईष्ट देव की पूजा की जाती है।
दीपावली: धनतेरस और नरक चतुर्दशी के बाद दीपावली आती है। दीपावली को मनाने का सबसे प्रचलित जनश्रुति भगवान श्रीराम से जुड़ी है, जिसमें माना जाता है कि भगवान श्रीराम जब लंका विजय के बाद माता सीता सहित अयोध्या लोटे तो अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत के लिए अपने-अपने घरों की साफ-सफाई कर अमावस्या की रात्रि में दीपों की पंक्ति जलाकर उसे पूर्णिमा बना दिया। इसलिए यह परम्परा दीपों के पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पाकवान बनाये जाते हैं। बाजार तरह-तरह की मिठाईयों, खील-बताशे, खांड के खिलौने, लक्ष्मी गणेश आदि की मूर्तियों से सजे नजर आते हें। जगह-जगह आतिशबाजी और पटाखों की दुकाने सज जाती हैं। रात्रि को सभी लोग घरों की साफ-सफाई और साज-सज्जा में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि मान्यता है कि दीपावली कीरात लक्ष्मी जी सर्वत्र विचरण करते हुए अपने स्वयं के निवास योग्य स्थान ढूंढ़ती है, ऐसा स्थान जहाँ अंधेरा और अंधेरे की ही भांति गंदा न दिखाई दे। वह केवल बाह्य स्वच्छता ही नहीं अपितु पूरे परिवार के अंतःकरण की पवित्रता एवं शुचिता पर ध्यान देती है। इस संबंध में पुराणों के माध्यम से में लक्ष्मी जी का संदेश दिया गया है कि “वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने। अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्तवे।। स्वधर्मशीलेषु च धर्मवित्सु वृद्वोपसेवानिरते च दान्ते। कृतात्मनि क्षान्तिपरे समर्थे क्षान्तासु दान्तासु तथाऽबलासु।।“