'ख्याल' कविता संग्रह नाम से मेरी सहपाठी निवेदिता ने खूबसूरत ख्यालों का ताना-बना बुना है। भोपाल स्थित स्वामी विवेकानंद लाइब्रेरी में ‘ख्याल’ का लोकार्पण हुआ तो कविताओं को सुन-पढ़कर लगा जैसे मुझे अचानक मेरे ख्यालों का भूला-बिसरा पिटारा मिल गया हो। जहाँ पहले स्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही कौन कहाँ चला गया, इसकी खबर तक नहीं हो पाती थी, वहीं आजकल इंटरनेट भूले-बिसरे रिश्तों के मेल-मिलाप का एक बड़ा सुलभ साधन बन बैठा है। इसी की सुखद अनुभूति है कि करीब 20 वर्ष तक जिसकी कोई खबर न थी, वही सखी एक दिन अचानक मिल जायेगी, कभी सोचा न था। भूली-बिसरी स्कूल की यादें फिर से ताजी हों, एक-दूजे की सुध ली जाए, इसी उद्देश्य से जब सहपाठियों ने व्हाट्सएप्प में बचपन ग्रुप बनाया तो बहुत सहपाठी एक-एक कर आपस में जुड़ते चले गए, जिससे ज्ञात हुआ कि निवेदिता मध्यप्रदेश में ही बैतूल जिले में है और अपनी कविता संग्रह 'ख्याल' के लोकार्पण हेतु भोपाल आ रही हैं। निवेदिता ने दूरभाष पर जब मुझसे यह अनुरोध किया कि मेरी उसकी कविता संग्रह ’ख्याल’ के लोकार्पण के अवसर पर हाजिरी जरूरी है तो मन में कई भूली-बिसरी यादें ताजी हो चली और इसी बहाने मेल-मिलाप का ’खुल जा सिमसिम’ की तरह एक बंद दरवाजा खुला।
निवेदिता और मेरे ख्याल कितने कुछ मिलते-जुलते हैं, यह मैंने उसकी कविता संग्रह ’ख्याल’ पढ़ते हुए अनुभव किया। मुझे यह देख सुखद अनुभूति हुई कि उसने कविता संग्रह ’ख्याल’ में न सिर्फ अपना बल्कि दुनिया का भी बखूबी ख्याल रखा है। उसका मानना है कि- “उसकी कविताएं आस-पास के वातावरण, रोजमर्रा की घटनाएं, अनुभूतियों की उपज है। स्वान्तः सुखाय लेख न के लिए कोई निश्चित खांचा नहीं है, जहाँ गीत, गजल, छंद, तुकांत, अतुकांत का मिश्रण है। जैसा महसूस करना वैसा लिख देना बिना किसी काट-छांट के यही उचित है, यही सत्य है और मौलिक प्रतिक्रिया है।" इसमें मैं यह जोड़ना चाहूँगी कि भले ही एक रचनाकार पहले स्वान्तः सुखाय के लिए लिखता हो, लेकिन धीरे-धीरे जब वह लिखते-लिखते दीन-दुनिया को अपना समझ उनके सुख-दुःख को अपना लेता है तो फिर उसका लेखन स्वान्तः सुखाय न होकर सर्वजन हिताय बन जाता है।
निवेदिता के ’ख्याल’ कविता संग्रह को यदि मैं स्वादिष्ट व्यंजन ों से परोसा गया एक थाल कहूँ तो यह अतिश्योक्ति न होगी, क्योंकि उसने अपनी कविता संग्रह किसी एक विधा में न रचते हुए उसमें विविधता का समावेश किया है, जहाँ न बनावट है न कृत्रिमता, जो हमें उसकी अपनी एक अलग पहचान कराती है। सीधे-साधे पदों में रची रचनाएं उसके लेखन की ताकत है, जो भाषा के अनावश्यक अलंकरण से दूर है। उसके लेखन में ताजगी और सरलता के साथ परिपक्वता है, जो उसकी पहली कविता से ही स्पष्ट देखने को मिलती है-
“ये जो एक लफ्ज है ’हाँ’
ये अगर मुख्तसर नहीं होता
तो जरा सोचिये कि क्या होता?
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इसलिए लम्बा और दुश्वार सा होना था इसे
कि कोई बीच में ही रूक जाये
‘हा’ कहते कहते “
आपसी प्रेम जाने कब और कैसे कितने रूपों में हमारे सामने आकर खड़ा हो जाय, यह कोई नहीं जानता। इसका कोई पारखी नहीं मिलता। प्रेम की उड़ान सोच से भी ऊँची है। मुझे कुछ ऐसे ही ख्याल निवेदिता की 'अघटित’ कविता में देखने को मिली-
“मेरे कानों में गूँजती हैं वो बातें
जो तुमने कभी नहीं कही
और मैं सुनती हूँ एकांत में हवा की पत्तियों से छेड़खानी
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और हो जाती हूँ सराबोर,
उस प्रेम से जो तुमने मुझसे कभी नहीं किया।“
आपसी रिश्तों की निरंतरता के लिए संवाद जरूरी है। यदि थोड़ी सी खटपट से इनमें खटास आकर संवाद अवरुद्ध हो जाय तो फिर समझो उन्हें नदी के तट बनते देर नहीं लगती-
"तुम कह देते तो क्या होता?
कह देने से क्या होता है, सारी दुनिया कहती है
कभी-कभी दो हृदय नदी के तट बन जाते हैं
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और नदी के तट रह जाते हैं
निर्जन, उजाड़"
कुछ इसी तरह की झलक ’लकीर’ कविता में देखने को मिली-
"कलम पकड़कर सबसे पहले सीखा था,
लकीर बनाना,
और लकीरें जोड़-जोड़कर
सीखा बनाना अक्षर
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हमारे बीच कौन सी लकीर सरहद बन गई?
या फिर ऊपर वाला भूल गया,
हम दोनों के हाथों में एक-दूसरे के नाम की लकीर बनाना।"
निवेदिता की कविताओं में कभी सीधा-सरल वृतांत नजर आता है तो कभी कहीं-कहीं व्यवस्था से उपजी गहन पीड़ा, जो कटाक्ष रूप में देखने को मिलती है-
"प्यार वफा अब मिलना मुश्किल, सबकुछ सौदेबाजी है।
सब लोक यहां पर मोहरे हैं, दुनिया शतरंज की बाजी है।
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चोरों का सरदार ही अक्सर काजी है ......
जिसका जैसा दांव लगे वैसा सौदा पट जाता है,
वक्त किसी के पास नहीं, बस खबरे बासी, ताजी है
और
एक अन्य कविता में वह दुनिया में फैले झूठ-फरेब की ओर इशारा करती है कि-
"एक ही किस्सा गांव-गांव और शहर-शहर है
चेहरों और मुखौटों में अब कम अंतर है
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चलते -चलते पांव जल गये इस सहरा में
झूठ कहा था सबने कदम-कदम पे शजर है।"
वर्तमान परिस्थितियों में आस-पास की दुनिया में संरक्षण का खूब हो-हल्ला है। जबकि वास्तविक संरक्षण तो आदमी का होना चाहिए। इसी को निवेदिता ने ’संरक्षण’ कविता में चुटीले अंदाज में कहा है-
“आजकल सब तरह शोर है बचाओ बचाओ
जमीन को, जंगल को, हवा को,
पानी को बाघ को,
इतिहास को, संस्कृति और साहित्य को
नारी और नानी को
बोली और बानी को
किससे?
आदमी से?
और फिर आदमी को भी आदमी से बचाओ।"
कुछ कविताओ में निवेदिता ने नारी मन की उलझनों को बहुत सरल पर सटीक रूप से अभिव्यक्त किया है। स्वयं से किए गए प्रश्न, दूसरे व्यक्तियों से की गई अपूर्ण अपेक्षाएं और कभी परिस्थितिजन्य उलाहनाएं, यह सब उसकी कविताओं में नजर आती हैं। कहीं-कहीं इन्होंने मन की छटपटाहट को बड़े ही मर्मस्पर्शी रूप से व्यक्त किया है। 'दुनिया’ कविता में उसके समक्ष एक ऐसी ही चुनौती है। जहाँ मानो सारे दर्द एक जगह रखकर भी वह बहुत प्रयास करने के बाद भी जीवन की सुंदरता और कोमलता को शब्दों में संजोने में अपने को असमर्थ है। वे चाहती हैं कि सुंदरता और कोमलता दिखे, लेकिन जीवन के मन को समझने की वजह से वह विफल नजर आती हैं-
“बहुत बार चाहा मैंने कि फूलों पर लिखूं कविता
लेकिन आंखों के आगे
सड़कों पर भीख मांगते बच्चे आ गए
और शब्द कहीं खो गये।"
आम किताबी भाषा से दूर निवेदिता की कविताओं में वह जीवन है जो हमारे रोजमर्रा के अनगिनत अनकहे पहलुओं को दोहरता है। निवेदिता को कविता संग्रह 'ख्याल' के प्रकाशन पर मेरी अनंत आत्मीय शुभकामनाएं।