पहाड़ कहीं के भी हों, बहुत आकर्षित करते हैं। प्रकृति का सानिध्य पाने के लिए लालायित पर्यटकों को सबसे ज्यादा सुहाने लगते हैं पहाड़। बर्फ मढ़ी चोटियां, बल खाती नदियां, इठलाते झरने और सनन सन चलती हवा, लेकिन इन पहाड़ों के जीवन की असलियत कितनों को पता होती है? पर्यटक आते हैं और चले जाते हैं। उनका भला यहां की संघर्षशील जिंदगी से क्या वास्ता? यहां तक कि प्रवासी पहाड़ियों के बच्चों तक को यहां के जन जीवन के बारे में कुछ पता नहीं होता है। हां, वे जन जरूर थोड़े बहुत जानकार होते हैं, जिनके बाप-दादाओं ने दिल्ली, मुंबई, लखनऊ या जयपुर जैसे किसी शहर में गृहस्थी जमा लेने के बावजूद अपनी यादों में एक पहाड़ बसा रखा होता है और जो इसे अपनी अगली पीढ़ी को किसी धरोहर की तरह सौंपने के जतन करते रहते हैं...। जाने-माने लेखक देवेंद्र मेवाड़ी ने भी अपनी कृति ‘मेरी यादों का पहाड़’ में ऐसा ही जतन किया है। बचपन की स्मृतियां संजोकर मेवाड़ी जी ने संस्मरणात्मक कथा साहित्य को ऐसी ऊंचाई प्रदान की है, ऐसे गद्य का सृजन किया है कि बरबस मुंह से एक ही शब्द निकलता है- अद्भुत। असल में ऐसी कृति तभी संभव है, जब आपका अपनी मातृभूमि से अटूट लगाव हो। जन्मभूमि के प्रति जबर्दस्त तड़प हो आपके भीतर। आप कितने ही उम्रदराज हो जाएं, लेकिन आपके अंदर बचपन हरदम मौजूद हो।
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