मिट्टी के बर्तन, जिन्हे कई दशकों से इस्तेमाल करना छोड़ा जा चूका है, उसकी जगह धातु के बर्तनों ने लेली. धातु के बर्तन महंगे पड़ने लगे और प्लास्टिक के अविष्कार के बाद धातु के बर्तनों की जगह धीरे-धीरे प्लास्टिक ने ले ली. आज जब प्लास्टिक के पर्यावरण पर पड़ रहे बुरे असर को देख उस पर पाबन्दी की बात हो रही है तो एक बहुत ही अवैज्ञानिक सोच के लोग जिनका मानना है कि सब कुछ भारत में हज़ारों लाखों साल पहले था ,उन्ही अवैज्ञानिक लोगो ने फिर से मट्टी के बर्तन के इस्तेमाल की बात करनी शुरू कर दी. मिटटी के बर्तन प्लास्टिक की ही तरह पर्यावरण के लिए घातक हैं. जिन लोंगो का मानना है की मिटटी के बर्तन वापिस मिटटी में मिल जाते है और प्रकृति को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाते तो वो यह नहीं जानते की हम मिटटी के बने कच्चे बर्तनों का इस्तेमाल नहीं करते क्योकि वो पानी से भीग कर वापिस मिटटी में मिल जाते है इसलिए ऐसे बर्तनों का इस्तेमाल ना तो पानी पीने के लिए किया जा सकता है और ना ही खाना पकाने के लिए. उसके लिए मिटटी के बर्तनों को भट्टी में पकाना पड़ता है. भट्टी में पकी मिटटी वापिस मिटटी में मिल तो जाती है पर वो मिटटी बंजर होती है और जब उसका प्रतिशत खेती की मिटटी में बढ़ जाएगा तो वो खेतों को बंजर बना देगी जिसमे खेती नहीं हो पाएंगी. यह समस्या सिर्फ मिटटी के बर्तन से ही नहीं है यह ईंटो से भी है , यही कारण है कि अब विकासशील देश ईंटों का इस्तेमाल बहुत कम कर रहे है दूसरी तकनीक से मकान बना रहे है. इसलिए यह कहना की मिटटी के बर्तन क्योकि हमारे पूर्वज इस्तेमाल किया करते थे वही वैज्ञानिक है तो यह सरासर गलत है. आज हमारे देश में बहुत से हिन्दू वैज्ञानिक है, जो अब गाय की खेती की बात भी करते है. इन देशी वैज्ञानिकों से सावधान रहिये ये नीम हकीम खतरायें जान है. (आलिम)