एक हाथ की मुट्ठी खुली हुई है
दूसरी मुट्ठी बंद है
जो मुट्ठी खुली हुई है , वह खाली है
इसने संजोकर कुछ भी नहीं रखा
न आँसू न गम न एहसास न जज्बात
जो भी मिला थोड़ा थोड़ा सब में बाँट दिया
और जो खुद से भी लिखा पढ़ा नहीं गया
वह दिल में दफ़न कर दिया
बंद मुट्ठी में भूत और भविष्य दोनों कैद है
कई लकीरें हमने काँच से खींचे हैं
उस काँच के किरचें अब तक हाथ में गूंथें हुए हैं
इस मुट्ठी ने सबकुछ सहा
दर्द में कभी रोया नहीं कभी चीखा चिल्लाया नहीं
यह सिर्फ संजोया है
कई बार सोचती हूँ
जो सूरज मुट्ठी के गिरफ्त में है
इसे आज़ाद कर दूँ
मगर डर है कि इसकी किरण कहीं
मुझे ही जला कर राख न कर दे