रात बेखबर चुपचाप सी है
आओ मैं तुम्हे तुमसे रूबरू करवाउंगी
मेरे डायरी में लिखे हर एक नज्म के किरदार से मिलाऊँगी
मैं तुम्हे बतलाऊँगी की जब तुम नहीं थे फिर भी तुम थे
जब कभी कभी दर्द आँखों से टपक जाती थी .....
कागजों पर एक बेरंग तस्वीर बनाती थी
तुम्हारे आने के बाद उसमें रंगत आ गयी है
इस बेजान सिरत को तुम्हारी सूरत मिल गयी है
तनहा रातों में जब कभी तुम्हें याद करती हूँ
अपने छत के मुंडेर पर खड़ी होकर तुम्हारे शहर के तरफ देखती हूँ
जब ठंडी हवाएं मेरे चेहरे को छूती है ...
तुम्हारी खुशबू का एक घूँट पीकर तुम्हारी सांसों को महसूस करती हूँ
दरमियाँ मीलों का फासला है मगर
एहसास होता है कि मैं तुम्हारे आस पास ही रहती हूँ