( नीम हकीम खतरे जान-- कहानी प्रथम क़िश्त )
दशरथ और उसकी पत्नी हरिद्वार स्थित आत्मानंद जी के आश्रम में पिछले तीन बरस से रह रहे हैं । अब वे वहीं के होकर रह गए हैं । अपने गांव, घर जाने की उनकी इच्छा समाप्त हो चुकी है । लेकिन तन्हाइयों में दशरथ अक्सर अपनी पिछ्ली ज़िन्दगी के बारे सोचते रहते हैं । दशरथ जी को अपनी नातिन लक्षमी की बेहद याद आती है, जो इस दुनिया को दो बरस पूर्व ही अलविदा कह चुकी है । और उसकी मौत का कारण शायद दशरथ जी खुद को मानते हैं । इसलिए उन्हें और भी दुख होता है कि जिसे मैं हद से ज्यादा प्यार करता था । वह मेरे ही कृत्य से शायद मारी गई ।
वास्तव में 3 वर्ष पूर्व तक दशरथ दुर्ग ज़िले के देवकर गांव में रहते थे और वहां के वे एक नामी गिरामी चिकित्सक थे। चिकित्सा के प्रोफेशन से उन्हें अकूत धन की प्राप्ति हुई ।
वास्तव में दशरथ जी की कहानी भी थोड़ी रोचक है । वे सिर्फ़ 5 वीं क्लास तक ही पढ पाए थे । फिर घर की गरीबी के कारण वे पढाई छोड़कर अपने गांव राखी से देवकर आ गये थे और पहले एक होटल में हलावाई का काम किया वहां कां नही जमा तो वे डा दीवान के क्लिनिक में सहयोगी का काम करने लगे । कुछ सालों तक डा दीवान के यहां काम करते करते वह एक पारंगत कंपाऊंडर बन गया ।
देवकर में एक सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल भी था । पिछले पांच वर्षों से उस अस्पताल में डा विश्वनाथ त्रिपाठी पदस्त थे । वास्तव में डा त्रिपाठी अपने छात्रीय जीवन में बहुत होशियार थे । उन्होंने आयुर्वेद में एम डी भी किया था । साथ ही वे कई रसायनों को मिलाकर नई नई दवाएं भी बनाने का प्रयोग करते रहते थे । वैसे तो डा त्रिपाठी मुख़्यत: आयुर्वेदिक की ही दवाओं का उपयोग करते थे । कभी कभार विशेष परिस्थिति में वे एलोपथिक दवाओं का उपयोग भी किया करते थे । उन्हें एलोपथिक दवाओं का भी अच्छा खासा ग्यान था । लेकिन उनके प्रति देवकर के मरीजों का विश्वास ज्यादा जम नहीं पाया था । अत: वे दिन भर में मुश्क़िल से 3 या 4 मरीज़ ही देख पाते थे । वे अपनी क्लिनिक में अपना अधिकान्श समय किताबें पढते हुए ही गुज़ारते थे ।
उनकी क्लिनिक से कुछ दूरी पर ही डा दीवान की क्लिनिक थी । जहां हर समय मरीजों का तांता लगा रहता था । एक दिन डा दीवान लड़ रहे दो सांडों के बीच फ़ंसकर बुरी तरह घायल हो गए। उनकी कमर की हड्डी टूट गई और वे बिस्तर पर पड़ गए। उसके बाद वे पक्षाघात के शिकार हो गए और महीने भर बिस्तर पर रहने के बाद एक दिन उन्हें हार्ट अटेक आया और वे स्वर्ग सिधार गए।
डा दीवान की मृत्यू के पर उसके बाद दशरथ ने अपना अलग एक क्लिनिक खोल लिया और बोर्ड पर नाम लिखवा दिया : डा दशरथ का अस्पताल “। कुछ बरस और बीते तो लोग डा दीवान का नाम भूलने लगे और देवकर में डा दशरथ ही चिकित्सा के क्षेत्र में सबसे जाना माना नाम हो गया । दसरथ यह तो जानता था कि चिकित्सकीय प्रक्टिस में अगर 8-10 दवाऑ का ज्ञान हो जाए तो प्रक्टिस मेँ सफलता पाई जा सकती है, पांचवी तक पढाई करने के बाद भी।
उधर सरकारी आयुर्वेदीक अस्पताल में पदस्त डा त्रिपाठी एक अच्छे चिकित्सक होने के बाद भी मरीज़ों से वंचित रहे । एक अच्छे चिकित्सक होने के बावजूद जब उनकी प्रेक्टिस नहीं जमी तो उन्होंने मानसिक रूप से स्वीकार कर लिया कि यही मेरी नियति है। वे संस्कृत के गूढ जानकार थे और अपने घर में पूजा पाठ भी नित्य किया करते थे । साथ ही वे अपने परिजनों के घरों में भागवत , देवी भागवत व रामायण के कथावाचक व प्रवचनकर्ता के रुप में भी अपनी बेहतरीन भूमिका निभाते थे । धीरे धीरे जब लोगों को पता चला कि वे पूजा पाठ भी कराते हैं तो पास पड़ोस के लोग भी उन्हें अपने घरेलू धार्मिक कार्यों को संपन्न कराने अपने घर बुलाने लगे ।
इस तरह दस वर्षों में एक और उपाधि उनके माथे पर सुशोभित हो गई । लोग अब उन्हें डाक्टर पंडित विश्वनाथ त्रिपाठी के नाम से जानने लगे थे । अब पंडिताई कार्य से उन्हें अच्छा खासा आर्थिक लाभ भी होने लगा । वे आर्थिक रूप से सुदृढ हो
उधर दशरथ साव की प्रेक्टिस दिन दूनी और रात चौगुनी के हिसाब से बढते ही जा रही थी । उन्होंने अब क्लिनिक में ¾ सहयोगी भी अपनी मदद के लिए रख लिया था।
( क्रमशः)