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प्रेरक

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दो सिर वाला हारड्डाप्राचीन समय की बात है। हारड्डा (एक अजीब - सा, बड़ा - सा पक्षी) नामक एक विचित्र पक्षी रहता था जिसके सिर दो थे किंतु घड़ एक ही था। दोनों सिर के अंदर कोई एकता नहीं थी। दो दिमाग होने की

तुम भी तो हो वसुधा के मानव। निहित कर्तव्य निभाओ जीवन का। खिल भी लो पुष्प नव नूतन सा। चहको भी कुंजर बन उपवन का। जीवन की उपमानों को कर आलेखित। इसकी धारा के अनुरूप भाव कर लो।। मानो नहीं नियम, कोई बात नह

जीवन, उस घट में रखे सुधा बिंदु को। तनिक ठहरो! मैं मंथन तो कर लूं। प्यासा भी हूं, होंठों पर तो धर लूं। तुम ठहरो तनिक, मन की अपनी कर लूं। तुम जीवन, मेरे द्वंद्व पर ऐसे ही मुसकाओगे। मैं अपनी बात बताऊंगा,

जीवन की धग-धग जलती मरुधरा। पथ पर कभी अधिक तीव्र होता है ताप। कभी हृदय कुंज में चुभता है संताप। कभी तो विकल हो करता है आलाप। पर क्यों इतना हलचल है,धैर्य का ले-लो संबल। अरे ओ राही, पथ पर धीरे-धीरे चल।।

कनक प्रभा की आभाओं में लिपटा। जीवन की आशाएँ फिर सींचित हो। स्वप्न लोक की सजीव हुई भाव भंगिमा। जीवन्त हुआ फिर स्वर गुंजित हो। जो ठान लिया मन में, किया कर्म के द्वारा। मानव वह ,पथ पर नहीं कभी है हारा।।

परिधि जीवन के उन्मुक्त भाव का। सागर सी लहरे भी उठते जाते। पथिक पथ पर ही-है, होती है बातें। उन्मत सी फिर है संशय की रातें। अरी लुभावनी जीवन, तू संग तो आ। मैं नव संगीत पिरोऊँ, तू प्रेम गीत तो गा।। माना

मुक्तक  : वो दौर निकल गया तो ये दौर भी निकल जायेगा बहारों का मौसम फिर से, पलटकर जरूर आयेगा आशाओं के दीयों को कभी बुझने ना देना ऐ दोस्त एक दिन ये आसमां,  तेरे कदमों में सि

मेरी कहानियां यथार्थ पर आधारित होती है इसलिए मैं हर किसी से बात करके अपनी कहानियां ढूंढती हूँ । दिल्ली प्रवास के दौरान एक टैक्सी में सफर करते हुए विनोद कुम्हार नाम के टैक्सी चालक ने अपने बचपन के पालन

कही धूप  कही  है छाँव, जिंदगी के मचल रहे है पाॅव, कभी उपर कभी नीचे, यह कैसे कैसे भींचे। वो दरिया का एक किनारा, भला लगे ,भी प्यारा प्यारा। पर उसका क्या फिर  करे  नजारा, जो उतरकर, म

आज भी जब वह घटना याद आती है तो मन डर से भर जाता है और साथ ही हंसी भी आती है। यह बात उस समय की जब मैं कक्षा दसवीं में पढ़ती थी। हमारी पड़ोस में एक शर्मा परिवार रहता था। शुगर फैक्ट्री का कैंपस था।  लगभ

घर के बाहर कोने में लगे बेला और गुलाब को मैंने एक साथ बो दिया था। जहां तक मुझे स्मरण आता है। मैंने कभी सफेद गुलाब का पौधा नहीं रोपा। मुझे लाल और गुलाबी गुलाब ही सदा से लुभाते रहे हैं। सच्चाई तो यह है

नीतामुनि हर साल की भांति इस साल भी बहुत धूमधाम से अपनी शादी की 22वीं सालगिरह मना रही थी। पति-पत्नी दोनों एक सुंदर से झूले में हाथ पकड़े बैठे थे। आने-जाने वाले लोगों का तांता लगा हुआ था।सभी लोग पति-पत

रवि और मोहन की दोस्ती बहुत  प्रगाढ़ थी। कक्षा में दोनों एक साथ ही बैठते थे। पहली कक्षा से एक साथ पढ़ते खेलते सातवीं तक आ गए थे। पढ़ने में दोनों ही बहुत अच्छे थे। सभी अध्यापक हर किसी को रवि और मोहन का उ

मैं आम का पेड़ हूँ। आज में बूढ़ा हो गया हूँ। मेरी उम्र लगभग पचपन साल की हो गयी है। टोनू मोनू के पिता के जन्म के समय उनके दादा जी ने मुझे धरती पर रोपा था। आज टोनू मोनू के पिता भी पचपन साल के हो हैं। मै

सागर और तट दोनों सहोदर है... पर दोनों में बहुत अंतर है। सागर हमेशा जल में रहता और तट हमेशा सूखा रहकर धूप में तपता था। दोनों में प्रगाढ़ प्रेम है। जब तट को प्यास लगती तो सागर उसे भरपूर पानी पिलाकर उसे

यह कहानी है काकोरा बस्ती में रहने वाली एक मात्र एम.ए तक पढ़ी लिखी लड़की मानोबी की। मनोबी का जन्म एक बहुत ही साधारण से परिवार में हुआ था। उसके पिता के पास पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त छोटा सा जमीन

दान आदि पुण्य का कार्य वही कर सकता है जिस पर प्रभु की कृपा बरसती है। यह बिल्कुल सच्ची घटना एक लघुकथा के रूप में... आप सबके साथ साझा कर रही हूँ। "श्री राम लला: मन से मंदिर तक" ऐतिहासिक पुस्तक निर्माण

पिछवाड़े के कदंब के पेड़ पर बैठा...उलूक का एक जोड़ा...आपस में बतिया रहा था। मादा ने नर से कहा...क्या तुम बता सकते हो  ? यह मनुष्य हमें घुग्घू क्यों समझता है। नर ने कहा...अरे ! सुनो तुम्हें पता है। हम

पंचोली गांव के मुहाने पर पीपल और नीम के दो बहुत पुराने वृक्ष थे...दोनों में अटूट प्यार था। दोनों के बीच की दूरी कम होने के कारण...दोनों की टहनियां एक दूसरे के गले मिलकर संवाद कर लेती थी। आज दोनों वृक्

कितने छोटे-छोटे तत्वों से बच्चों की खुशियां बंधी होती हैं...यह देख कर मन गदगद हो गया। बात उस समय की है जब मैं अपने बगीचे में टहल रही थी। सुबह का समय था। सूरज की सुनहरी किरणें मन को आनंदित कर रही थीं।

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