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इतनी दूर मत ब्याहना बाबा कविता

24 अगस्त 2022

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उतनी दूर मत ब्याहना बाबा! / निर्मला पुतुल [ पूरी कविता 👇 ]


बाबा!

मुझे उतनी दूर मत ब्याहना

जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर

घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे


मत ब्याहना उस देश में

जहाँ आदमी से ज़्यादा 

ईश्वर बसते हों


जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ

वहाँ मत कर आना मेरा लगन 


वहाँ तो कतई नहीं

जहाँ की सड़कों पर

मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ

ऊँचे-ऊँचे मकान 

और दुकानें हों बड़ी-बड़ी


उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता 

जिस में बड़ा-सा खुला आँगन न हो 

मुर्ग़े की बाँग पर होती नहीं हो जहाँ सुबह 

और शाम पिछवाड़े से जहाँ 

पहाड़ी पर डूबता सूरज न दिखे 

मत चुनना ऐसा वर 

जो पोचई और हड़िया में डूबा रहता हो अक्सर 

काहिल-निकम्मा हो 

माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में 

ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर 


कोई थारी-लोटा तो नहीं 

कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी 

अच्छा-ख़राब होने पर 


जो बात-बात में 

बात करे लाठी-डंडा की 

निकाले तीर-धनुष, कुल्हाड़ी 

जब चाहे चला जाए बंगाल, असम या कश्मीर 

ऐसा वर नहीं चाहिए हमें 


और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ 

जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए 

फ़सलें नहीं उगाईं जिन हाथों ने 

जिन हाथों ने दिया नहीं कभी किसी का साथ 

किसी का बोझ नहीं उठाया 


और तो और! 

जो हाथ लिखना नहीं जानता हो ‘ह’ से हाथ 

उसके हाथ मत देना कभी मेरा हाथ! 


ब्याहना हो तो वहाँ ब्याहना 

जहाँ सुबह जाकर 

शाम तक लौट सको पैदल 

मैं जो कभी दुख में रोऊँ इस घाट 

तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम 

सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप


महुआ की लट और 

खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ संदेश तुम्हारी ख़ातिर 

उधर से आते-जाते किसी के हाथ 

भेज सकूँ कद्दू-कोहड़ा, खेखसा, बरबट्टी 

समय-समय पर गोगो के लिए भी 


मेला-हाट-बाज़ार आते-जाते 

मिल सके कोई अपना जो 

बता सके घर-गाँव का हाल-चाल 

चितकबरी गैया के बियाने की ख़बर 

दे सके जो कोई उधर से गुज़रते 

ऐसी जगह मुझे ब्याहना! 


उस देश में ब्याहना 

जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों 

बकरी और शेर 

एक घाट पानी पीते हों जहाँ 

वहीं ब्याहना मुझे! 


उसी के संग ब्याहना जो 

कबूतर के जोड़े और पंडुक पक्षी की तरह 

रहे हरदम हाथ 

घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर 

रात सुख-दुख बाँटने तक 

चुनना वर ऐसा 

जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली 

और ढोल-माँदल बजाने में हो पारंगत 


वसंत के दिनों में ला सके जो रोज़ 

मेरे जूड़े के ख़ातिर पलाश के फूल 


जिससे खाया नहीं जाए 

मेरे भूखे रहने पर 

उसी से ब्याहना 

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खामोशी
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मैने ये दुनिया ज्यादा देखी तो नहीं और ना ही इतनी समझ हैं। क्या अच्छा है और क्या नहीं। इस लिए में किसी को सलाह नही अधिकारी हूँ। कि कुछ समझा सकू फिर भी खामोशी को तोड़ना भी जरुरी होता है तो जब मन करता है लिख देती हूँ। मैं कहाँ तक सही हू ये भी नहीं जानती । ये आप सभी मेरा मार्ग दर्शन कर सकते हो ।बस इतना जरूर बताना चाहती हु की किसी की खामोशी को गलत नहीं समझना।

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