पहाड़ों से पलायन
पहाड़ों से पलायन, यहां शिक्षा की अच्छी व्यवस्था ,अस्पताल की व्यवस्था व रोजगार नहीं है। लोग अच्छे रोजगार बेहतर शिक्षा की तलाश में शहरों को पलायन कर गए हैं। वे पहले छोटे शहरों में आते हैं वहां से अच्छी सुविधओं की तलाश मे बड़े शहरों को कूच कर जाते हैं। प्राकृतिक खूबसूरती, साफ हवा पानी से भरपूर पहाड़ को छोड़ देते हैं हमेशा के लिए। ये पहाड़ कभी जिंदादिल लोगों की खुशी हंसी ठहाकों से गूंजती थे।
उत्तराखंड ग्रामीण विकास एवं प्रवासन आयोग द्वारा सौंपी गई ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2011 की जनगणना में पहले से चिहिनित 1,053 खाली गांवों की सूचि में कुछ वर्षाे में 734 गांव जुड़ गए हैं पिछले कुछ दशक में करीब5.06 लाख लोग उत्तराखंड छोड़ गए हैं।
पिछले सात साल में निर्जन गांवों की सूचि में पौड़ी क्षेत्र शीर्ष पर है । पौड़ी के 186 , बागेश्वर के 77, पिथौरागढ़ के 75 , उत्तरकाशी के 70, चंपावत के 64 ,टिहरी के 58 ,अल्मोड़ा के 57,चमोली के 41 ,रूद्रप्रयाग के 20 ,हरिद्वार के 38 ,नैनीताल के 22 ,उधमसिंह नगर के 19 और देहरादून के सात गांव निर्जन गांव हैं। प्रवासन से राज्य की 3,496 ग्राम पंचायतें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।
यदि हम दूसरे पहाड़ी राज्यों से तुलना करें तो ,उत्तराखंड की कुल आबादी का 36.2 हिस्सा प्रवासी बन गया है । जबकि हिमाचल प्रदेश में 36.1 फीसदी ,सिक्किम में 34.6 और जम्मू कश्मीर में 17.8 आबादी का पलायन हुआ है।
उत्तराखंड के पहाड़ के गांव से लोग पहले छोटे कस्बों को पलायन करते हैं लेकिन वहां भी उनकी सभी इच्छाएं पूरी नहीं होती तो वे चल देते हैं बड़े शहरों की ओर क्योंकि वहां शिक्षा, स्वास्थय व रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं। शहरों में यातायात जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं जो लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। उŸाराखंड में पलायन का सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ा है वे भी पलायन होकर माता पिता के साथ शहरों को चले जाते हैं अच्छी शिक्षा के लिए लेकिन वो अपनी संस्कृति से कट जाते हैं । उन्हे अपनी भाषा में बोलना भी नहीं आता व बड़े होकर वो भी गांव नहीं आना चाहते, क्योंकि सुख सुविधाएं तुलनात्मक रुप से वहां नहीं हैं जो शहरों में बन पड़ती हैं।
पलायन के कई कारण गिनाए जाते है एक कारण है लड़कियां जो गांव में पली बढ़ी हैं वो भी गांव में शादी नहीं करना चाहती, वो खेतांे में भी काम नहीं करना चाहती भले ही गांव में उनकी कमाई ज्यादा ही क्यों न हो। एक दूसरे की देखा देखी भी लोग पलायन कर रहे हैं। शहरों में रहना शान शौकत व सुविधाओं में रहना भी लोगों को भा रहा है । भले ही शहरों में वो किसी भी हालात में रह रहे हैं। जो गांव में हैं भी वो भी मन से गांव में नहीं हैं।
उत्तराखं में मौसम चक्र बदलने के कारण खेती पर बदलाव हुआ है। खेती के लिए ज्यादा बारिश न होने के कारण सिंचिंत भूमि बिना पानी के रह जाती है यहां भी कहीं पर ज्यादतर सिंचाई से किए जाने वाले खेत हैं तो कहीं असिंचित खेत जिनमें ज्यादा मंेहनत करनी पड़ती है जो लोग करने के लिए तैयार नहीं हैं। जब से गांवों में लोग कम हुए पशुपालन में भी कमी आई है। पहले कोई खेती के लिए बैल पालता था तो लोग बदले में उसके यहां खेत पर काम करने आ जाते थे। बैल रखने वाला व्यक्ति अपने बैल उस को ही देता था जो उसके साथ काम पर जाते थे व कुछ पैसे भी देते थे। क्योंकि पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत हैं तो बैलों से ही खेती होती है। इस वजह से लोग आपस में मिल जुल कर खेती का काम करते थे। पहाडी़ गाय दूध कम देती है तो आज लोगों ने गाय पालना ही छोड़ दिया तो हल के लिए बैल कहां से मिलेंगें। बैल नहीं होंगें तो पहाड़ में खेती कहां से होगी जिसपर पहाड़ी गांवों में लोगों की जीविका चलती है। यों समझें कि पशु पालन और खेती पर पहाड़ों का अर्थिक ताना बाना बुना हुआ था। पारंपरिक फसलें दम तोड़ रही हैं, सुअर, शाही, हिरन, गांव में घुुुुसकर फसल को खत्म कर देते हैं। फलोद्योग और नकदी फसलों की जिन इलाकों में सभावनांए हैं वहां याता यात के साघन नहीं हैं तो मार्केंटिंग की व्यवस्था नहीं हो पाती है।
पलायन का एक असर ऐसा भी हुआ है कि हम उम्र बच्चों के शहर चले जाने पर गांव में बचे हुए एक या दो बच्चों का जीवन कठिन हो गया है। उन्हे खेलने के लिए दोस्त नहीं मिल रहा है जिस कारण वो चिड़चिड़े होते जा रहे हैं किसी के बुलाने पर या किसी के बुलावे पर वो लपक कर उनकी गोद में चले तो जाते हैं पर सहजता से बात नहीं कर पाते, चिल्ला कर बात करना उनकी आदत बन गई है। वे सहज नहीं जैसे वे हम उम्र के साथ गप्पे लगा पाते थे। वे चिड़चिड़े हो रहे हंै सामान्य बच्चे की तरह नहीं रह गये हैं। इस तरह के मानसिक परिवर्तनों पर सरकारों का ध्यान नहीं हंै।
पहाड़ों से पलायन के निहितार्थ ये कि देश की सीमांओं से लगी इस आबादी को पहली रक्षा पंक्ति की मान्यता के बावजूद समग्र विकास की दृष्टि से पोषित नहीं किया जा रहा जिसका खामियाजा सीमांत नीति, मांणा जैसे सैकड़ों गांवों मे दिखना भी शुरु हो गया है।
आलेख- लक्ष्मी नौटियाल
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