*पितृपक्ष में तर्पण*
हिन्द की संस्कृति की सम्पन्नता का साक्षात प्रमाण हिन्दुधर्म की प्रचलित प्रथाओं से मिल जाता है ।हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध है इसका अनुमान सिर्फ इससे ही लगाया जा सकता है कि हम न सिर्फ जीवनपर्यंत बल्कि मरणोपरांत भी अपने पितरों से किस प्रकार जुड़े रहते हैं ।
अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक के 15 दिन तक कि अवधि को पितृपक्ष के नाम से जाना जाता है।इन पंद्रह दिनों में हम तर्पण करते हैं तथा जिस तिथि को उनकी मृत्यु हुई स् दिन पार्वण श्राद्ध करते हैं ।
श्रद्धया इदं श्राद्धम् अर्थात प्रेत और पितर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वही श्राद्ध है।
श्राद्धों के भी विभिन्न प्रकारों का वर्णन हमारे पुराणों में (मत्स्य पुराण में तीन तथा यमस्मृति में पांच )किया गया है ,इसपर विस्तार से चर्चा फिर कभी ।
ऐसी अवधारणा है कि पितृपक्ष में ब्रह्मांड की ऊर्जा तथा उस ऊर्जा के साथ पितृ प्राण अर्थात परिवार के वो सदस्य जो देह त्याग कर दुनियाँ से चले गए हैं ,अपने सूक्ष्म शरीर के साथ पृथ्वी पर व्याप्त रहते हैं ।इस पंद्रह दिनों की अवधि में जो तर्पण किया जाता है उसमें से अपना अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ वापस चले जाते हैं ।
पुराणों में भी पितृपक्ष का उल्लेख किया गया है, जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म और राम द्वारा दशरथ और पक्षीराज जटायु को गोदावरी तट पर जलांजलि देने का उल्लेख काफी प्रचलित है ।
पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है।दिव्य पितृ तर्पण ,देव तर्पण ,ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है।
पुराने समय में किसी नदी ,तालाब के किनारे पुरोहित द्वारा सामूहिक तर्पण का चलन था आज भी जिनके पास समय और सुविधा है वो सूर्योदय पूर्व चले जाते हैं सामूहिक तर्पण के लिए किन्तु यदि आज की व्यस्त दिनचर्या के कारण यह सम्भव नहीं हो तो घर में ही तर्पण किया जा सकता है।
कैसे करें तर्पण :---
'ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम'
आप अपने दोनों हाथों की अंजली बनाएँ ,मन्त्रपढते हुए अंगुष्ठमूल में दबी हुई कुशा के सहारे अपने गोत्र का नाम लें ,पिता का नाम लें तथा स्वर्गवासी परिजनों का बारी बारी से नाम लेते हुए जल अर्पण करते जाएँ।
सुनंदा