कंचन मृग को देख के सीता सुध बुध अपनी खो बैठी।
सत्यसंध संबोधन करके तिरिया हठ भी कर बैठी।
माया मृग का बध करने को माया पति दौड़े श्री राम।
पत्नी की इच्छा पूरी हो, फिर चाहे जो हो परिणाम।।
माया की सीता के सम्मुख, माया का ही मृग आया।
माया के ही यती वेश में, पंचवटी रावण आया।।
त्रिगुणित माया के प्रभाव में, सीता अगर नहीं आती।
लक्ष्मण द्वारा निर्धारित, सीमा के अन्दर रह जाती?
तो जो हुआ नहीं होता वह, जन मानस से छिपा नहीं।
खग, मृग, तरु से भी पूछा, मृगनयनी मेरी कहाँ गयी?
पंचतत्व की पंचवटी ही, यह सारा संसार है।
त्रिगुणित माया के अधीन हो, जीव हुआ लाचार है।।
नर लीला कर गुणातीत प्रभु, कर आचरण दिखाते हैं।
कितनी बलशाली है माया, प्रबल प्रभाव बताते हैं।।
माया से यदि मुक्ति चाहते, मायापति के हो जाओ।
कर्तापन का भाव त्याग कर, प्रभु चरणों में खो जाओ।।