shabd-logo

रूठा सावन

27 मई 2015

227 बार देखा गया 227
अब सावन भी बेईमान हो गया। कहीं कहीं तो झमझम बरसा। कहीं पे रेगिस्तान हो गया। सावन भी बेईमान हो गया। ये अषाढ़ सावन अरु भादौं, पावस ऋतु के माह तीन हैं। जल देने में पावस रितु भी, देखो कितनी दीन-हीन है। प्यासी धरती निरख रही है, निर्दय बादल कहाँ खो गए। भौगोलिक सिद्धान्त विफल हो, पता नहीं वे कहाँ सो गए। प्रकृति भी कितनी विकृत हो गयी, धरती को भी भान हो गया। सावन भी बेईमान हो गया। कभी जहाँ पर हरियाली थी, खग-मृग कलरव करते थे। चाँदी से ढ़लते झरने भी, मन सबका हर लेते थे। उसी जगह पर देखो तो, अब कितना भव्य मकान हो गया। सावन भी बेईमान हो गया। भौतिक प्रगति हुई है निश्चित, और बहुत विज्ञान बढ़ा। ‘श्री केदार’ की घटनाओं का, दानव भी तो निकट खड़ा। बहुत बढ़ा विज्ञान धरा पर, पर क्या वो भगवान हो गया? सावन भी बेईमान हो गया। कुपित हुआ जब इन्द्र तो उसने, व्रज में महावृष्टि कर डाली। वाम हस्त से उठा गोवर्धन, उसने व्रज की लाज बचा ली। उसी कृष्ण की शरणागत हो, मुसलमान ‘रसखान’ हो गया।
anamika

anamika

ईश्वरीय शक्ति सर्वोपरि।

27 मई 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

बहुत बढ़ा विज्ञान धरा पर, पर क्या वो भगवान हो गया? सावन भी बेईमान हो गया....सुन्दर रचना !

27 मई 2015

1

(प्रतिनिधि)

26 मई 2015
0
2
1

चेतन रुपी निधि जो मिली है,तुम हो केवल प्रतिनिधि इसके | मालिक होने का भ्रम त्यागो,कृपा पात्र हो केवल उसके | जग मे जो नानात्व दीखता ,उसी एक का है विस्तार | आदि अंत कोई जान ना पाया, कैसा परभु तेरा संसार | हर उर मे है वास तुम्हारा ,कर्ण कर्ण मे स्वमित्व तुम्हारा | जीव भूल से यही समझता, अपना है यश वैभव

2

प्रतिनिधि

27 मई 2015
0
0
0

चेतन रूपी निधि जो मिली है, तुम हो केवल प्रतिनिधि इसके। मालिक होने का भ्रम त्यागो, कृपा पात्र हो केवल उसके।। जग में जो नानत्व दीखता, उसी एक का है विस्तार। आदि अंत कोई जान न पाया, कैसा प्रभु तेरा संसार।। हर उर में है वास तुम्हारा, कण कण में स्वामित्व तुम्हारा। जीव भूल से यही समझता, अपना है यश वैभव सा

3

पंचवटी

27 मई 2015
0
0
0

कंचन मृग को देख के सीता सुध बुध अपनी खो बैठी। सत्यसंध संबोधन करके तिरिया हठ भी कर बैठी। माया मृग का बध करने को माया पति दौड़े श्री राम। पत्नी की इच्छा पूरी हो, फिर चाहे जो हो परिणाम।। माया की सीता के सम्मुख, माया का ही मृग आया। माया के ही यती वेश में, पंचवटी रावण आया।। त्रिगुणित माया के प्रभाव

4

दंभ और दैन्य

27 मई 2015
0
2
0

ईश्वर हमेशा निश्छलता पर रीझता है दंभ व्यक्ति को नीचे की ओर खींचता है इतिहास साक्षी है इस बात का कि, दौड़ में हमेशा कछुआ ही जीतता है। धन्य है कछुये का साहस कि उसने प्रतियोगिता में खरगोश को स्वीकारा जैसे गमले के पौधे ने किसी बरगद को ललकारा? खरगोश अपने दम्भ में ही फूलता-फलता रहा कछुआ अपने दैन्य के क

5

वन्स मोर वन्स मोर

27 मई 2015
0
1
1

राम-रावण का युद्ध चल रहा था दर्शकों के मन में एक ही भ्रम पल रहा था। क्या श्रीराम रावण को जीत पायेंगे? क्या जानकी को अयोध्या वापस ले जायेंगे? तब तक श्री राम ने 31 वाण एक साथ छोड़े रावण घायल होकर गिरा और मर गया। पूरा रणक्षेत्र तालियों की गड़गड़ाहट से भर गया। चारों ओर से आवाज आई वन्स मोर वन्स मोर। रावण

6

बन्द करो पाखण्ड

27 मई 2015
0
1
2

हर वर्ष रावण मारते हैं अन्तर तनिक भी न पड़़ा। गत वर्ष से 2 फीट ऊँचा होके रावण फिर खड़ा। फूँककर रावण का पुतला बस परम्परा सी चला रहे। अब भी छुपे कितने दशानन सीता को जिन्दा जला रहे। हर वर्ष कैसे भर रहा है पाप का इतना घड़ा। गत वर्ष से 2 फीट ऊँचा होके रावण फिर खड़ा। आचरण से दूर कोसों गुणगान करते राम का

7

एकलव्य

27 मई 2015
0
2
2

एक आधुनिक एकलव्य ने गुरू शिष्य परम्परा को नया मोड़ दिया। परीक्षा में नकल करने पर जब गुरू ने आपत्ति की तो उसने द्रोणाचार्य का अंगूठा तोड़ दिया। और बोला गुरू होकर लघुता दिखाई प्रतिभा की उपेक्षा कर नमक की दुहाई। ऊपर से ऋषि पतंजलि अन्दर से चारवाक नथुनी की शोभा क्या जब बेंच दी नाक। हीरा कीचड़ में गिरने स

8

नौ मन तेल

27 मई 2015
0
2
3

कहावत है न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी अब सुन लो कान खोलकर तेल की व्यवस्था हो गयी है अब राधा नाचेगी इतना ही नहीं भरत नाट्यम के दो-चार श्लोक भी बांचेगी। राधा ने सोचा था इतने तेल की व्यवस्था करना स्वयं में एक बखेड़ा है। अगर व्यवस्था हो भी गयी तो कह दूँगी कि आँगन टेढ़ा है। मत लो बहानेवाजी का सहारा । म

9

रूठा सावन

27 मई 2015
0
2
2

अब सावन भी बेईमान हो गया। कहीं कहीं तो झमझम बरसा। कहीं पे रेगिस्तान हो गया। सावन भी बेईमान हो गया। ये अषाढ़ सावन अरु भादौं, पावस ऋतु के माह तीन हैं। जल देने में पावस रितु भी, देखो कितनी दीन-हीन है। प्यासी धरती निरख रही है, निर्दय बादल कहाँ खो गए। भौगोलिक सिद्धान्त विफल हो, पता नहीं वे कहाँ सो गए। प्

10

संसार-सत्य

28 मई 2015
0
1
1

मृत्यु है प्रमाण पत्र ईश के अस्तित्व का, कर रहे है दंभ क्यों मिथ्या व्यक्तित्व का। किसी भी क्षण रूकेगी सांस आश सब यही रही, एक पल भी ना मिला ये संपदा धरी रही। संसार सत्य है यही जब से सृष्टि है बनी, बच सका न कोई भी निर्धन हो या धनी। कर्म ही प्रधान है तन तो नाशवान है, मिथ्या इस देह पर व्यर्थ का अभिमान

11

काल

28 मई 2015
0
1
1

जिस क्षण जो होना है निश्चित उस क्षण में ही सब कुछ होता। चलता फिरता एक खिलौना मानव के वश कुछ नहीं होता।। अस्थि दान यदि ऋषि ना करते, असुरों का संहार न होता। महादेव विष पान न करते, तो जग का कल्याण न होता।। मंथन में यदि सुधा न मिलती, देवासुर संग्राम न होता। जिस क्षण जो होना है निश्चित उस क्षण में ही सब

12

आनन्द सिन्धु

28 मई 2015
0
1
1

पहले तुम मानव बन जाओ, ब्रह्म खोजने फिर जाना। चारवाक का जीवन जीकर परमतत्व किसने जाना।। श्रेय ही जीवन लक्ष्य व्यक्ति का, प्रेय मात्र तो साधन है। ‘‘मैं’’ विलीन हो जायेगा जब तब समझो आराधन है।। तभी पूर्ण होता आराधन जब आराधक अपना रूप । शनैः शनैः तजता जाता है हो जाता आराध्य स्वरूप।। नाम रूप सब हटा के देखो

13

नेताजी का भाषण

28 मई 2015
0
0
0

स्वाधीनता के बाद देश आगे बढ़ा है, प्रगति के आंकड़ों को मैने भी पढ़ा है। हाँ, आंकड़ों पर यदि आप विश्वास नहीं करते तो, आँख खोलकर देखो, इतना बड़ा उदाहरण सामने खड़ा है। पहले मैं क्या था, आज मैं क्या हूँ, मैं पुलिस को देखकर भागता था, डर के मारे रात-रात भर जागता था, मेरे अतीत पर मत जाओ, मेरे वर्तमान को गल

14

आसा - राम - पाल

28 मई 2015
0
0
0

रामपाल को देखकर बोले आसाराम। हम दोनों बैकुण्ठ में भजते सीताराम।। भजते सीताराम काम कुछ ऐसा कर जाएं, जेल में रहते रहते दोनों आश्रम नया बनाएं। जितने बंदी बन्द यहाँ पर, प्रवचन उन्हें सुनाएं, जब प्रभाव पड़ जाये उन पर, फौरन शिष्य बनायें। इस प्रयोग को फिर धीरे से जेलर पर अजमाएं। शंकर बूटी मिला मिलाकर दिव्य

15

जड़-चेतन

28 मई 2015
0
0
0

आकाश, भूमि, जल, वायु, अग्नि सब जड़ श्रेणी में आते हैं। जड़ का ही सेवन नित करके प्राणी चेतन कहलाते हैं।। जड़ का महत्व मत कम समझो जड़ से ही चेतन चलता है। वैचित्र विलक्षण है जग में मिथ्या से चेतन पलता है।। यदि नहीं तो सेवन बन्द करो फिर कब तक चेतन रुकता है। अस्तित्व बचाने को अपना चेतन जड़ सम्मुख झुकता

16

होली

28 मई 2015
0
0
0

प्रेम और सौहार्द की आँखे अगर न तुमने खोलीं वैर भाव प्रतिशोध की गाँठें नहीं अभी तक खोलीं फिर तो तुम भी मना रहे बस परम्परागत होली। मन का कलुष तो ज्यों का त्यों है बसी है मन में चोली आत्मतत्व निर्मल होगा यदि मन की कलुषता धो ली फिर तो तुम भी मना रहे बस परम्परागत होली। शत्रु भी बन जाते हैं मित्र यदि

17

निर्माता

28 मई 2015
0
0
0

निराकार अरु निरविशेष निर्लिप्त और निष्काम शब्द समभाव में सदैव रहते हैं। उसी तरह से बिनु माता के जो होता उसको निर्माता कहते हैं। इसलिये अजन्मा कहते हैं उसकी जननी है कोई नहीं। फिर भी वह ‘था’, ‘है’ अरु ‘होगा’ इसमें है संशय तनिक नहीं। इस आत्म तत्व के ऊपर जब संसार पर्त चढ़ जाती है। माया अधीन जब मन होता

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए