चेतन रूपी निधि जो मिली है, तुम हो केवल प्रतिनिधि इसके।
मालिक होने का भ्रम त्यागो, कृपा पात्र हो केवल उसके।।
जग में जो नानत्व दीखता, उसी एक का है विस्तार।
आदि अंत कोई जान न पाया, कैसा प्रभु तेरा संसार।।
हर उर में है वास तुम्हारा, कण कण में स्वामित्व तुम्हारा।
जीव भूल से यही समझता, अपना है यश वैभव सारा।।
जीव जगत जगदीश की त्रिपुटी, में ही ए संसार टिका है।
आत्म ज्ञान से जो वंचित है, इन्द्रिय हाथों वही बिका है।।
तुमको अधीन करना था जिनको, तुम उनके अधीन हो जाते।
भोग पिपासा के लालच में, पड़कर दीन हीन हो जाते।।
नर तन व्यर्थ न जाने पाए, व्यसनों को मत गले लगाना।
प्रभु चरणों में मन अर्पण कर, सभी भ्रान्तियाँं दूर भगाना।।
व्यंजन और मनोरंजन में, सर्वेश्वर प्रभु कभी न फंसते।
मूर्ख जीव की चालाकी को, देख के प्रभु मन ही मन हंसते।।
दुर्योधन के व्यंजन फीके, विदुरानी के छिलके मीठे।
भाव बिना नीरस लगते है, स्वर्ण पात्र में व्यंजन घी के।।
दीन हीन ब्राह्मण के चावल, व्यंजन के किस कोटि में आते।
प्रबल प्रेम यदि नहीं छलकता, दो मुट्ठी तंदुल क्यों खाते।।
भाषा नही भाव से पूजो, अहंकार का करो विसर्जन।
प्रभु से केवल प्रभु को मांगो, तुच्छ लगेगें सब आकर्षण।।
शबरी को जब मिल सकते है, तुमको क्या प्रभु नहीं मिलेगें।
समुचित वातावरण बिना क्या, मरूथल में भी फूल खिलेगें।।
निर्मल मन निष्कपट हृदय से, प्रभु के शरणागत हो जाओ।
निश्चय ही वे कृपा करेगें, पहले खुद को पात्र बनाओ।।