shabd-logo

काया

29 सितम्बर 2015

225 बार देखा गया 225
featured imageहड्डियों के ढाँचे पर एक झिल्ली लिपटी हुई है उस जर्जर काया पर कपड़े की एक परत चिपटी हुई है बेबस नेत्र कनीनिका ने मिचमिचाकर देखा उधर किलकारी करता बचपन बेख़बर था जिधर वह मरियल आगे बढ़ा जहाँ कुछ दूरी पर अंगड़ाई ले रहा था यौवन फिर उस साँचे ने स्वयं को निहारा क्या यही है जीवन !

राजेन्द्र मल्ल की अन्य किताबें

राजेन्द्र मल्ल

राजेन्द्र मल्ल

उत्साहवर्धन के लिए आप का बहुत-बहुत अभिनन्दन... अनुराग जी !

3 अक्टूबर 2015

राजेन्द्र मल्ल

राजेन्द्र मल्ल

धन्यवाद …। शर्मा जी .

3 अक्टूबर 2015

ओम प्रकाश शर्मा

ओम प्रकाश शर्मा

फिर उस साँचे ने स्वयं को निहारा क्या यही है जीवन.......चंद पंक्तियों में बड़ी सुन्दरता से जीवन-दर्शन प्रस्तुत किया है !

3 अक्टूबर 2015

राजेन्द्र मल्ल

राजेन्द्र मल्ल

उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत-बहुत आभार !

3 अक्टूबर 2015

अर्चना गंगवार

अर्चना गंगवार

हड्डियों के ढाँचे पर एक झिल्ली लिपटी हुई है.......................umra की दहलीज़ कोएक नए नज़रिये से देखा है ।bahut खूब

2 अक्टूबर 2015

अर्चना गंगवार

अर्चना गंगवार

हड्डियों के ढाँचे पर एक झिल्ली लिपटी हुई है.......................umra की दहलीज़ कोएक नए नज़रिये से देखा है ।bahut खूब

2 अक्टूबर 2015

1

रश्मि बिखेरो

25 सितम्बर 2015
0
7
4

रश्मि बिखेरो, सारे जहां में सूरज बनकर तुम,आलोकित करो,इतना अवनि को,अंधकार हो जाए गुम.

2

काया

29 सितम्बर 2015
0
6
7

हड्डियों के ढाँचे पर एक झिल्ली लिपटी हुई है उस जर्जर काया पर कपड़े की एक परत चिपटी हुई हैबेबस नेत्र कनीनिका ने मिचमिचाकर देखा उधर किलकारी करता बचपन बेख़बर था जिधर वह मरियल आगे बढ़ा जहाँ कुछ दूरी पर अंगड़ाई ले रहा था यौवन फिर उस साँचे ने स्वयं को निहारा क्या यही है जीवन !

3

अल्हड़ बचपन

30 सितम्बर 2015
0
2
1

चंचरीक सा आह्लादित मन सारंग प्रसून सा तन दृग में दामिनी सी दीधिति किसी स्पृहा को संजोया मन कैसी है सुरम्य काया मुकुलित सी यह अल्हड़ बचपन !---- राजेन्द्र मल्ल ----

4

अधूरा तन

5 अक्टूबर 2015
0
3
3

पल-प्रतिपल प्रताड़ित किया जा रहा था एक मासूम जीवन, वह अधूरा था तन का पर मन का था पूर्ण, दण्डित होकर भी उस निश्छल का मन शांत था क्योंकि वह था भूख का ग़ुलाम, वह कर्ज़दार था उनका जिनके पास उसका अस्तित्व गिरवी पड़ा था, "कल" तक के लिए जो कभी नहीं आता "कल" !--- राजेन्द्र मल्ल ---

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए