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डर हार गई हिम्मत जीत गई...

14 अप्रैल 2022

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अनिल अनूप

उस दिन हिम्मत और डर की गज़ब लड़ाई हुई थी। सुबह उठ के घर के सारे काम किये, बिना किसी को ये एहसास दिलाए की आज उन्हें जाना था किसी को खुद को समर्पित करने, समाज के बंधन तोड़ने।
उनके मन में हज़ार संशय थे… फिर भी दिल की सुनी और अपने मानवीय अधिकार के लिए कदम बढ़ाये। घर और समाज की दहलीज़ लाँघ आई और वहां पहुंची जहाँ उनकी ज़िन्दगी के रंग थे… उनसे मिली जिनके लिए सब छोड़ आई थीं, नज़रें मिलते ही डर हार गया और हिम्मत जीती उस पल।
हिम्मत ने उस लंगड़ी बाल विधवा को दोबारा श्रृंगार दिया। एक बार फिर उन्होंने अपने होंठों पे लाली लगाई। रंगों को पहना। चांदी की चूड़ियां काँच में बदल गई थीं। पैरों में पायल, मांग में सिन्दूर, माथे पे बिंदिया, हज़ार अरमान लिए गेहुई रंग की अपाहिज़ बाल विधवा फिर दुल्हन सी सजी थी।
दोनों ने रिक्शा किया और चल पड़े कानून से मान्यता लेने कचहरी… कोर्ट मैरिज करने।
श्रृंगार के समय जो डर चित्त पड़ा था घर से निकलते ही उठ खड़ा हुआ और करने लगा द्वंदयुद्ध हिम्मत से। कोई देख ना ले इस डर से रिक्शे की छत से छाँव करवा ली। घूँघट भी दे दिया था डर ने उस ब्राह्मण निरीह को।
धड़कने भूकंप बनी थीं। चित्त फट रहा था।मन भूचाल था कि बस सब काम हो जाए कैसे भी। भगवान् के सामने भी उन्होंने प्रार्थनाओं का सैलाब बहाया होगा लेकिन कभी-कभी युद्ध में भाग्य भी काम कर जाता है…
उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था। प्रेमी साथ जिस कचहरी में प्रेम की मान्यता लेने गयी थी उसी कचहरी के बाहर उनके दुर्भाग्य ने उन्हें देख लिया। अपने किसी जमीनी विवाद के चक्कर में उसी गांव के शम्भू रतन (काल्पनिक नाम) भी कचहरी आए हुए थे। सुनवाई में टाइम था तो बाहर खड़े थे। उधर दूसरी तरफ़ से रिक्शे पे हिम्मत और डर की रणभूमि चली आ रही थी अपने प्रेमी के साथ।
शम्भू रतन रूपी दुर्भाग्य ने घूँघट से झलक पा ली अपनी लूटने जा रही इज़्ज़त की। अब क्या… डर और हिम्मत की रणभूमि में तब्दील हो गए शम्भू रतन भी। डर ये कि यदि इस अपाहिज़ बाल विधवा ने नीची ज़ात में शादी कर ली तो एक औरत से उनके समाज का बलात्कार हो जाएगा और बलात्कार करने का अधिकारिक ठेका तो पुरुषों का है।
उनके पुरुषत्व और हिम्मत ने उन्हें और हिम्मत दी और वो लटक लिए रिक्शे से। इस चक्कर में उनकी धोती खुल गई लेकिन अर्धनग्न वो डटे रहे। …और क्या पुरुषत्व था उनका… चलते रिक्शे से लटक लिए थे। इसी वज़ह से चोटें भी आई पर वो असीम वीरता से डटे रहे, चिल्ला कर भीड़ बुला ली (इस वीरता के लिए उन्हें समाज के ठेकेदारों से वीरता पुरस्कार जरूर मिला होगा )।
बुआ ने जाने की खूब कोशिश की, मिन्नतें की पर सब बेकार था क्योंकि दुर्भाग्य साथ जो था। शहर के ब्राम्हण मजिस्ट्रेट ने भी उनके होने वाले गैरजातीय विवाह को नकार दिया। रिक्शे से उतारी गई फिर गांव लाई गई। समाज का क्रोध उफ़ान पर था आखिरकार समाज किस्मत से जो बचा था अपने बलात्कार से।
वो निरीह मूरत बन गई चरित्रहीनता की। गांव की कुछ विधवाएं भी मन ही मन हँसी… उसके मानसिक दिवालियापन पर जो वो शादी करने चली थी। अब तो भुगतना ही था वैसे भी गलती बहुत बड़ी की थी अकेलापन दूर करना ही था तो उनको कुछ अन्य विधवाओं की तरह अपना शरीर और यौवन समाज के ठेकेदारों को समर्पित ही तो करना था वो भी चोरी छिपे…
प्रेम कभी शरीर के अधीन नहीं रहता ये मान के अपने प्रेमी को याद करती तो क्या चला जाता ? सामाजिक बहिष्कार हुआ , पारिवारिक बहिष्कार हुआ। वो मेरे पापा की कजन थीं।
मेरे पापा और बाबा थोड़े आधुनिक विचारों के थे तो बुआ को अपने घर रखा। पापा ने तो मम्मी के सामने अफ़सोस भी किया की बुआ के साथ ग़लत हुआ। लेकिन हिम्मत किसी की न हुई समाज से दुश्मनी मोल लेने की। वो हमारे घर तब तक रहीं जब तक घर वालों का गुस्सा शांत न हुआ फिर वो अपने घर चली गई और अपने यौवन और अरमानों का स्वयं संहार कर दिया।
कुछ दिनों बाद वो एक सामाजिक स्त्री में तब्दील हो गई सोना, खाना, काम करना और गांव प्रपंच में हिस्सा लेना…
अब यही सब था उनकी ज़िन्दगी। उस दिन हिम्मत जीती भी थी हारी भी थी और डर जीता भी था और हारा भी था। ये लगभग 50 बरस पहले की बात है हम पैदा भी नहीं हुए थे।
लेकिन मम्मी और बहुत से रिश्तेदारों से सुना था ये मंज़र और इसी मंज़र ने पहली बार हमें सोच में डाला था। उनका देहान्त हो चुका है पर लगभग 50 बरस पहले उनकी हिम्मत ने उन्हें आज भी अमर कर रखा है गांव और खानदान।


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