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होश संभाला तो खुद को कोठे पर पाया

11 अप्रैल 2022

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अनिल अनूप
[पैसों के लिए मां-बाप ने मुझे कोठे पर बिठा दिया. वहां से भागकर रेलवे स्टेशन पहुंची. रोटी से ज्यादा आसानी से वहां नशा मिलता था.]
तब मैं पेट से थी. सड़क पर रहती. जरूरत के समय दवा-दारू तो दूर, एक वक्त का खाना जुटाना मुश्किल था. दिनभर भीख मांगती और तब शाम को उन्हीं पैसों से कुछ खरीदकर खाती. रात में रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर सो जाती. मैं अनाथ नहीं. मेरे पति ने भी मुझे नहीं छोड़ा. मेरी कहानी शुरू होती है आरा जिले के एक छोटे से गांव से. मां-बाप ने गरीबी से तंग आकर अपनी ही बेटी को कोठे पर बेच दिया. मैं तीन साल की थी.

होश संभला तो आसपास लड़कियां ही लड़कियां दिखीं. सबके चेहरे गाढ़े मेकअप से लिपे-पुते और एकदम बेजान. वो कोठेवालियां थीं. नाचतीं, ग्राहकों को खुश करतीं. मुझे उस माहौल में बहुत डर लगता. मैंने नाच-गाना सीखने से मना कर दिया. पिटाई होने लगी. जितना विरोध करती, उतना पिटती. आखिरकार एक रोज मैं कोठे से निकल भागी. भागकर सीधे अपने मां-बाप के घर पहुंची. बच्ची थी, समझ नहीं सकी कि जिन्होंने बेचा, वो मां-बाप सही, सगे नहीं हो सकते. उन्होंने दोबारा मुझे बेचने की कोशिश की. मैं एक बार फिर भाग निकली और पटना रेलवे स्टेशन पहुंची.
अब रेलवे प्लेटफॉर्म ही मेरा घर हो चुका था. यहां-वहां घूमती. बच्ची देख कोई पैसेंजर कुछ दे देता तो खा लेती. धीरे-धीरे देने वालों ने खैनी-गुटखा भी देना शुरू कर दिया. भूख की जगह नशे ने ले ली. खाने को भरपेट मिलता नहीं था, मैं नशा करती और पड़ी रहती. कुछ होश नहीं रहता था कि कहां पड़ी हूं. किसके साथ हूं. सीधा खड़ा भी नहीं हो पाती थी. बाद में खुद को एक आदमी के साथ पाया. मैं बिना विरोध उसके साथ रहती रही. घर के सारे काम करती और कमाने के लिए भी जाती. वो घर लौटता तो नशे में धुत्त रहता. उसे और नशा चाहिए होता था. दारू के लिए मारपीट करता. मुझसे पैसे मांगता. न देने पर और मारता. मार खाते-खाते मैं रोती जाती. सोचती हूं तो मुझे याद नहीं आता है कि मैं सांस ज्यादा लेती थी या आंसू ज्यादा बहाती थी.
शरीर में ताप. मन में ताप और यहां तक कि आंसुओं में भी ताप रहता. कभी-कभी बुखार में नींद खुलती तो लगता कि शरीर के साथ मन भी जल रहा है. बात घर तक सीमित रहती तो फिर भी मैं गुजारा कर लेती. धीरे-धीरे नौबत यहां तक आ पहुंची कि पैसों के लिए पति मुझे दूसरों से जुड़ने को कहने लगा. मैं वहां से भी भाग निकली. तब 'बाबू' पेट में आ चुका था.
एक बार फिर मैं पटना रेलवे स्टेशन पर थी. यहां तमाम तरह के लोग मिलते हैं. कोई खराब तो कोई अच्छा. एक भाई ने मुझे 'शांति कुटीर' शेल्टर होम पहुंचाने में मदद की. यहां आई तो भरपेट खाना मिलने लगा. अब नशा खुद-बखुद छूट गया. शुरू-शुरू में किसी से बात नहीं करती थी. चुपचाप एक कोने में बैठी रहती. पुराने वाकये याद आते रहते. फिर देखा कि यहां सारी औरतों के दुख-दर्द एक-से हैं. मैं अकेली नहीं. इस बात के अहसास के साथ मैं सबसे घुलने-मिलने लगी. शेल्टर होम में स्टाफ से मिलने वाले लोग आते. मैं उन्हें पानी देने, साफ-सफाई का काम करने लगी. नई लड़कियां आतीं तो एकदम दबी-सहमी रहतीं. उन्हें देखकर मुझे मेरे दिन याद आ जाते. मैं बड़ी बहन की तरह समझाने लगी.
कुछ दिनों में मेरी शादी होने वाली है. लड़का यहीं पास ही रहता है. उसे मैंने अपने बारे में वो सबकुछ बता दिया जो मुझे रातों को डराता है. मैंने बताया कि कैसे मेरे मां-बाप ने मुझे कोठे तक पहुंचाया, कैसे वहां से भागकर मैं दोबारा एक आदमी के चंगुल में फंसी. कैसे एक रोज उस आदमी ने मुझे लोहे से दागा. सब जानने के बाद उसका इरादा नहीं बदला, बल्कि और मजबूत हो गया. वो मुझे शिद्दत से चाहने लगा है. मैं भी सब भूलकर एक नई शुरुआत करने को तैयार हूं. बाबू अब तीन साल का होने जा रहा है. उसका साथ भी मेरे लिए बड़ा सहारा है
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