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अस्तित्व से खिलवाड़

14 अप्रैल 2022

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-अनिल अनूप

चाचा अक्सर हमारे घर आते थे. बहुत हंसमुख और मिलनसार किस्म के थे वो. कभी बच्चों के लिए संतरे लाते तो कभी बेकरी वाले बिस्किट. सभी लोग उन्हें बहुत पसंद करते थे, लेकिन मुझे वो रत्ती भर भी पसंद नहीं थे.'

'वो मुझे देखते ही गोद में उठा लेते और चूमने की कोशिश करते. अपनी खुरदरी-सी दाढ़ी मेरे चेहरे पर रगड़ने लगते और मुझे तब तक गोदी से नहीं उतारते जब तक मैं उन्हें जोर का चांटा न मार दूं, या नाखून न लगा दूं.'

23 साल की रचिता ये बातें बताते हुए घृणा और ग़ुस्से से भर उठती हैं. उनके साथ ये हादसा तब हुआ जब वो सात-आठ साल की थीं.

'क़रीबी होते हैं अपराधी'

यौन शोषण के मामलों में एक बड़ा हिस्सा वो होता है जिसमें अपराधी पीड़िता का क़रीबी होता है. ऐसे हालात में न तो जुर्म की शिकायत आसानी से हो पाती है और न इनकी सुनवाई या फ़ैसला.

लेकिन क्या वाक़ई ज़ुर्म की शिकायत या सुनवाई इतनी मुश्किल है? उस औरत पर क्या बीतती होगी जिसका अपना ही उसका उत्पीड़न करता है? ऐसी स्थिति में कहां जाएं? किससे मदद मांगें?

रचिता बताती हैं, "आख़िर एक दिन मैंने हिचकिचाते हुए मम्मी से कह ही दिया. मैंने कहा कि गौरव चाचा अपनी दाढ़ी मेरे चेहरे पर रगड़ते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है. मम्मी ने पूछा, कुछ और तो नहीं किया? मैंने ना में सिर हिलाया."

वो कहती हैं, "उस दिन के बाद से उन्होंने गौरव चाचा को मुझ तक पहुंचने ही नहीं दिया. उनके आते ही मुझे दूसरे कमरे में बिठा देतीं और पूछने पर कहतीं कि पढ़ाई कर रही है या खेलने गई है."

वह अब इस बात को लगभग भूल गई हैं, लेकिन जब भी यौन उत्पीड़न या इससे मिलते-जुलते शब्द सुनती हैं तो ज़ेहन में ये बातें उभरकर ज़रूर आ जाती हैं.

यह कहानी अकेले रुचिता की नहीं है. आंकड़ों पर गौर करें तो यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामले ऐसे होते हैं जिसमें अपराधी या तो पीड़ित के परिवार का सदस्य होता है या कोई रिश्तेदार या फिर कोई जानने वाला.

हालांकि रचिता ख़ुशक़िस्मत थीं कि उनके घरवालों ने उनकी बात समझी, लेकिन ऐसी मदद और सहानुभूति बहुत कम लोगों को ही मिल पाती है.

आंकड़े

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड् ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2018 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के कुल3,47,604 मामले दर्ज किए गए. इनमें रेप के 44, 651 मामले थे और 33,098 मामलों में अपराधी पीड़िता का जानने वाला था.
महिलाओं के लिए काम करने वाले एनजीओ 'ब्रेकथ्रू' की सीनियर मैनेजर पॉलिन गोमेज कहती हैं,''हमने ऐसे मामले देखे हैं जहां दामाद ने सास का यौन उत्पीड़न किया, भाई ने बहन का, पिता ने बेटी का या फिर दादा ने पोती का.''

अगर ऐसा हो तो क्या करना चाहिए?

इस सवाल के जवाब में पॉलिन कहती हैं, "अपनी बात तब तक कहते रहिए जब तक कोई सुन न ले, कोई प्रतिक्रिया न दे दे."

वो कहती हैं, "कई लोगों से कहिए. स्कूल-कॉलेज में कहिए. पुलिस या मजिस्ट्रेट के पास जाइए. किसी एनजीओ की मदद लीजिए, हेल्पलाइन नंबरों पर कॉल कीजिए. कुछ भी कीजिए, लेकिन चुप मत बैठिए."

सेंटर फ़ॉर रिहैबिलिटेशन ऐंड डेवलपमेंट में क्लिनिकल साइकॉलजिस्ट डॉ. श्रावस्ती वेंकटेश कहती हैं, "यौन शोषण के पीड़ितों में ग़ुस्सा, ग्लानि और निराशा का भाव होता है. मदद न मिलने पर यह और बढ़ जाता है."

वो कहती हैं, "कई बार पीड़ित घटना के सालों बाद भी उससे पूरी तरह उबर नहीं पाता. ऐसे में काउंसलिंग बहुत मददगार साबित होती है."

कई बार लोग जुर्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहते हैं, लेकिन क़ानून और बाक़ी चीजों की सही जानकारी न होने की वजह से ख़ामोश रहकर तकलीफ़ें झेलते रहते हैं. यह स्थिति बहुत ही भयावह है.

बचपन के दिन हँसने-खेलने के होते हैं लेकिन इन्हीं दिनों होने वाले कुछ हादसे आपकी पूरी ज़िंदगी बदल कर रख देते हैं.
इस वाकये को बीते कई साल हो चुके हैं लेकिन अब तक यह हाल है कि मुझे प्यार, रिलेशनशिप और शादी का नाम सुनकर ही डर-सा लगने लगता है.

उस वक़्त मेरी उम्र 11-12 साल रही होगी. वो पड़ोस में किराए पर कमरा लेकर रहता था, दूसरे शहर से पढ़ने आया था. स्टूडेंट था इसलिए जब-तब ठंडा पानी, नमक, चीनी वगैरह लेने हमारे घर आ जाया करता था.

मेरे घर वाले उस पर बहुत भरोसा करने लगे थे. मैं और मेरा चचेरा भाई उससे ट्यूशन पढ़ने जाने लगे. एक बार किसी टेस्ट में मेरे बहुत कम नंबर आए. उस दिन उसने मुझे लंबा सा जवाब याद करने को दिया और मेरे भाई को आसान सा.
भाई ने कुछ देर में याद करके सुना दिया. उसने उसे छुट्टी दे दी और ये कहकर घर भिजवा दिया कि जब तक रोशनी को जवाब याद नहीं होगा इसे छुट्टी नहीं मिलेगी.

अब कमरे में सिर्फ मैं और वो थे. थोड़ी देर में मैंने देखा कि वो पैंट खोल कर अपना प्राइवेट पार्ट सहला रहा था, उसने मुझे जबरदस्ती इधर-उधर छूना शुरू कर दिया.

मुझे याद है, इसके बाद मैं बहुत बीमार पड़ गयी थी वो रोज़ मेरी तबीयत पूछने आता था, या शायद ये खबर लेने कि कहीं मैंने घर में कुछ बताया तो नहीं. लेकिन घर का माहौल शांत था क्योंकि मैंने किसी से कुछ नहीं कहा था.

उसके बाद मेरा ये हाल हो गया था कि अपने भाई का सामना करने से भी बचती थी. जब बड़ी हुई तो पता चला कि मेरे साथ यौन अपराध हुआ है.

शुक्र है कि कुछ वक़्त बाद वो दूसरे शहर चला गया था लेकिन आज भी जब उस बारे में ख़याल आता है तो मन में घिन और सिहरन सी उठती है.

सुमन, 33 साल (बदला हुआ नाम)

बात तब की है जब मैं चौथी या पांचवीं क्लास में पढ़ती थी. बाकी बच्चों की तरह हम भी गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर जाया करते थे.

चूँकि नानी गांव में अकेले ही रहती थीं और वहां जब हम चार भाई-बहन पहुंचते तो दिक्कतें भी बहुत होती थीं लेकिन नानी के यहां जाने का चाव इतना था कि हम हर साल वहां पहुंच जाते.

नानी के घर के बगल में हमारे चचेरे नाना का घर था. हम उनके घर जाकर उनके बच्चों के साथ खेलते, टीवी देखते और खूब मौजमस्ती करते.

एक रात बहुत गर्मी पड़ रही थी, लाइट भी नहीं थी. बाहर बिछाने के लिए चारपाइयां कम थीं. जब चारपाई कम पड़ गयी तो उन्होंने कहा कि सुमन को मेरे घर भेज दो. उस दिन उनके घर में कोई और नहीं था.

मुझे चचेरे नाना के घर सोने के लिए भेज दिया. उन्होंने मुझे चारपाई पर लिटाया और मुझे पढ़ने के लिए एक किताब दी. मुझे कहानियां पढ़ने का शौक था इसलिए जो भी किताब हाथ लगती सब पढ़ डालती थी.

उन्होंने मुझसे एक कहानी को एक निश्चित जगह से पढ़ने के लिए कहा. मैं पढ़ने में होशियार थी, अपना टैलेंट दिखाने का मौका मिला था तो फटाफट पढ़ने लगी.

पढ़ते-पढ़ते एक शब्द आया, 'ब्रा'. उन्होंने पूछा, "जानती हो ब्रा क्या होता है? तेरी मम्मी पहनती हैं?"

यह कहते हुए उनका हाथ मेरी टी-शर्ट के अंदर पहुंच चुका था. मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ ग़लत हो रहा है. मैं रोते हुए किताब फेंक कर वहाँ से भागी, मेरे पीछे वो भी आए.

मैं रोती रही लेकिन किसी से बता नहीं सकी कि मेरे साथ क्या हुआ है. जब समझदार हुई तो अपनी छोटी बहनों को इस बारे में बताया, ताकि अगर उनके साथ ऐसा कुछ हो तो वो किसी से बता सकें.

माँ से आज तक नहीं कह सकी क्योंकि मेरी मां ने फिर कभी मुझे सीने से लगाकर नहीं पूछा कि उस रात क्या हुआ था.
जब लोग अपने बचपन के क़िस्से बताते हैं तो मेरा मन घबराने लगता है. अच्छा नहीं लगता है जब वो पड़ोस के क़िस्से, दोस्तों के साथ मस्ती की बातें शेयर करते हैं. मेरा दिल करता है ज़ोर से चिल्लाकर बोल दूं कि चुप रहो तुम सब. लोगों के लिए ज़िंदगी का सबसे अच्छा हिस्सा बचपन होता है लेकिन मेरा नहीं था. मेरे लिए बचपन सिर्फ़ एक बुरी याद है.''
दीपा के शब्दों से उनकी बेचैनी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
जब दीपा (बदला हुआ नाम) ये सब बता रही थीं तो सिर्फ़ इतना ही समझ आया कि उन्होंने कुछ बहुत क़ीमती खोया है, जिसका पछतावा उन्हें अब भी है.

आज दीपा 26 साल की हैं लेकिन 6 साल की उम्र में जो कुछ उनके साथ हुआ वो अब भी उनके अंदर है. 20 साल में भी यह डर कभी-कभी सामने आ जाता है.

दीपा बताती हैं, ''वो हमारे पड़ोस में ही रहते थे. मुहल्ला कल्चर था, तो पड़ोसी किसी रिश्तेदार से कम नहीं होते थे. मेरी मां उनकी भाभी थीं. दोनों घरों में इतनी नज़दीकी थी कि कभी लगा ही नहीं वो हमारा घर नहीं है. पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा सवाल पूछने से रोकता है. शक़ नहीं करने देता.''

ये सब साइकिल पर घुमाने के लालच से शुरू हुआ. दीपा उन्हें भैया कहा करती थीं. वो कहती हैं, ''मुझे किस करना या गोद में बैठाना उन्हें कभी अटपटा नहीं लगा. लगता भी क्यों, वो बड़ों के सामने भी तो मुझे गोद में बैठाते थे ही, जब उन्होंने कभी ऐतराज़ नहीं किया तो मैं 6 साल की बच्ची क्या ही करती. लेकिन उस रात से एक नया खेल शुरू हुआ.''

दीपा बताती हैं, ''मेरे साथ ग़लत हो रहा था. जब भी वो घर में अकेले होते, मेरे साथ ग़लत करते. बहुत ग़लत. वो रेप नहीं था लेकिन रेप से कम भी नहीं था. मुझे उस दौरान गंदा तो लगता था लेकिन उन्होंने मुझे न जाने किस तरह ये यक़ीन दिला दिया था कि जो कुछ वो करते हैं, नॉर्मल है. हर कोई ऐसा करता है. सबका एक सीक्रेट पार्टनर होता है, जिसके बारे में बात नहीं की जाती है.'

वो मेरे शरीर से ही नहीं, मेरे दिमाग़ और साइकिल पर घूमने के भोले, लालची मन के साथ भी खेल रहा था.'

दीपा बताती हैं कि ऐसा लंबे समय तक चला लेकिन उन्होंने कभी किसी से कहा नहीं.' 'सीक्रेट पार्टनर' वाली बात उन्हें कुछ इस तरह घोंटकर पिलायी गई थी कि उसके आगे कुछ पूछने-समझने की गुंजाइश ही नहीं थी.

वो बताती हैं 'गंदगी मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी थी. हालांकि मैं उनसे दूर रहने की कोशिश करती थी लेकिन वो बहाने से मुझे अपने पास बुला लिया करते थे. उस घर में उस शख़्स का एक बड़े भाई भी रहते थे. उस दिन वो घर में अकेले थे.

मुझे न जाने क्यों लगा कि ये भी मेरे साथ वही करेंगे. मैं चुपचाप उनके सामने उसी तरह हो गई जैसे उनके छोटे भाई के सामने हो जाया करती थी. लेकिन शायद वो वाकई मुझे भाभी की बेटी मानते थे. ज़ोर से डांटा और भगा दिया. उस दिन पहली बार समझ आया कि ये सब जो हो रहा था नॉर्मल नहीं.'

दीपा बताती है कि उन्हें ये तो अच्छे से याद नहीं कि इन सबका अंत कैसे हुआ लेकिन जब वो लोग उस मुहल्ले से जा रहे थे तो वो ख़ुश बहुत थीं.

'भरोसा करने में डर लगने लगा'

वो कहती हैं कि उनके घर में सब थे लेकिन उन्हें उन लोगों से बहुत प्यार था. वो उन पर आंख मूंदकर भरोसा करते थे और यही सबसे बड़ा रोड़ा था. उन्हें हमेशा लगता था कि कोई उनकी बात पर यक़ीन नहीं करेगा. सब उन्हें ही ग़लत बता देंगे.

'मेरे घर में बहनें थीं, भाई था, मम्मी-पापा थे लेकिन कभी किसी से बताने की हिम्मत नहीं हुई. यहां तक कि उन्हें अब भी ये बात नहीं पता है और शायद मैं कभी बताऊं भी नहीं. उन्हें उनकी नज़रों में शर्मिंदा होते नहीं देखना चाहती.'

दीपा बताती हैं कि बचपन की इस घटना के चलते ही उन्होंने कभी बहुत दोस्त नहीं बनाए. धोखा खाने का डर हमेशा रहा और इसी वजह से वो अक्सर अकेली ही रहीं. एक डर और रहा कि कहीं उन्हें एड्स तो नहीं हो गया होगा. इस डर का इलाज तो उन्होंने टेस्ट कराकर कर लिया.

'शादी को लेकर भी हुई परेशानी'

आज की तारीख़ में दीपा एक हाउस-वाइफ हैं लेकिन इस रिश्ते की शुरुआत आसान नहीं थी. वो बताती हैं, 'मुझे हमेशा डर रहता था कि जिस आदमी से मेरी शादी होगी अगर उसे मेरी ज़िंदगी के इस पहलू के बारे में पता चलेगा तो...लेकिन मैंने सच छिपाया नहीं. सब कुछ बताया. साफ़-साफ़. उन्हें कोई परेशानी नहीं थी. उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा, जो हुआ उसमें तुम्हारी ग़लती नहीं थी.'

दीपा के अनुसार, सबसे बड़ी चुनौती सामान्य रहना है. आज भी कई मौक़ों पर वो असहज हो जाती हैं. कई बार थोड़ा अबनॉर्मल बिहेव करती हैं, जिसका सबसे बुरा असर उनके साथ रहने वालों पर पड़ता है.

'घरवाले चाहें तो रोकी जा सकती हैं ऐसी घटनाएं'

वो मानती हैं कि चाइल्ड अब्यूज को सिर्फ़ घर वाले ही रोक सकते हैं. अपने मामले का ज़िक्र करते हुए वो कहती हैं कि एक समय के बाद वो उस शख़्स के पास जाने से कतराती थीं. अगर उनके घर वालों ने ये नोटिस किया होता तो ये सबकुछ बहुत पहले रुक गया होता.

थोड़ी पड़ताल की होती तो... लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया. उन्हें कुछ अजीब नहीं लगा और यही चूक ज़्यादातर मामलों में होती है. दीपा से जब हमने पूछा कि क्या उन्होंने किसी डॉक्टर की मदद ली तो उन्होंने कहा, नहीं.

वो कहती हैं कि सोचा तो कई बार कि साइकॉलजिस्ट के पास जाऊं लेकिन उसके लिए भी लोगों को सौ बातें बतानी पड़ेंगी. सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग सुनते समय तो संवेदना दिखाते हैं लेकिन फिर वही इन बातों को अलग-अलग तरह से लोगों को बताते हैं. जो जख्म को कभी भरने ही नहीं देता.
दीपा कहती हैं, ''बच्चे बहुत सी बातें बोल नहीं पाते लेकिन उनकी हरकतें सब कहती हैं, ज़रूरत है तो सिर्फ़ उन पर नज़र रखने की. ये इतना मुश्किल भी नहीं है. अभी मेरा कोई बच्चा नहीं है लेकिन मैं जानती हूं जो मेरे साथ हुआ, उसके साथ ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं होने नहीं दूंगी. उसे ये पता होगा कि उसकी मां उसकी हर बात पर यक़ीन करेगी और उसे कुछ भी बोलने में हिचकिचाने की ज़रूरत नहीं होगी.''

तब शायद 6 की साल थी, जब पहली बार मुझे किसी लड़के ने ग़लत तरीके से छुआ. उससे पहले तक मुझे औरत या मर्द के स्पर्श का अंतर नहीं मालूम था. इतनी पुरानी बात मुझे याद है, यह सोचकर शायद आपको अजीब लग रहा होगा, लेकिन मैं आपको बता सकती हूं कि जिसके साथ भी ऐसा होता हैं, बदकिस्मती से उसे सब कुछ याद रह जाता है.

तब मैं नहीं जानती थी कि मेरे साथ क्या हो रहा है. लेकिन मैं इतना जानती हूं कि मुझे वो सब खराब लगा था. लगा जैसे मेरे साथ ज़बरदस्ती की गई है. वो मेरे पड़ोस में रहता था और मैं उसे 'भाईजी' कहा करती थी. जहां तक मुझे याद है, वो छठी या सातवीं क्लास में पढ़ता था.

एक सुबह मैं खेल रही थी, जब उसने मुझे गोद में उठा लिया और अपने हाथ मेरे अंडरवियर में डाल दिया. पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया लेकिन जल्द ही मुझे अहसास हुआ कि ऐसा ग़लती से नहीं हुआ था, उसने जान बूझकर किया था.

मैंने उससे कहा कि मुझे नहीं खेलना है और मैं अपने घर भाग गई. मुझे अपने अंदर कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था. उसी दोपहर को वो मेरे घर लंच पर आया. घर में जब भी कुछ खास बनता तो उसे खाने पर बुलाया जाता था.

मैंने भरपूर कोशिश की कि उसकी ओर न देखूं और उससे बात न करूं. लेकिन ऐसा लग रहा था कि जैसे मैंने कुछ चुराया है और ऐसा कोई सीक्रेट है जो सिर्फ़ मुझे और उसे पता है.

कोई ऐसा गंदा सीक्रेट जो मैं अपनी मां या घर में किसी और से नहीं बता सकती थी. ख़ुशकिस्मती से कुछ समय बाद मेरा परिवार दूसरी जगह शिफ्ट हो गया और हम कभी नहीं मिले.
हालांकि काफी दिनों तक मुझे ऐसा महसूस होता रहा जैसे वो मुझे छू रहा हो. मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वाकये को याद करके मैं कैसे शर्म और आत्मग्लानि से भर जाया करती थी.

मैंने उसके बारे में सोचना तो बंद कर दिया था लेकिन जब भी कोई पुरुष मुझे घूरता या जान बूझकर मेरे पास आने की कोशिश करता तो फिर मेरा मन वैसी ही अजीब दहशत से भर जाता था.

दूसरी घटना तब हुई जब मैं 10वीं में पढ़ती थी. मैं स्कूल जा रही थी. रास्ते में एक आदमी ने बड़ी ही ढिठाई से मेरे पास आकर मुझे छुआ और ऐसे चलते बना जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो. मैं उस पर चिल्लाई लेकिन वो अपने 4-5 दोस्तों के साथ बड़े आराम से निकल गया. मैं बुरी तरह रोने लगी थी.

इस घटना के बाद मैं एक हफ़्ते तक स्कूल नहीं गई. बाद में जब दोबारा स्कूल गई तो उस रास्ते से नहीं गई, दूसरे रास्ते से साइकिल लेकर जाने जाने लगी. इस बारे में किसी को बता पाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाई.

एक बार मैंने अपने एक दोस्त को इस बारे में बताया तो उसने कहा, "तुम कौन सी प्रीति जिंटा दिखती हो?'' उसका यह बेवकूफाना जवाब मुझे चुप करने के लिए काफ़ी था. बाद में मैंने दूसरी लड़कियों से ये बातें बताईं तो पता चला उन्होंने भी ऐसे अनुभवों का सामना करना पड़ा था.

इस बारे में सार्वजनिक मंच पर खुलकर बोलने में मुझे थोड़ी हिम्मत की ज़रूरत महसूस हुई. मैंने जान बूझकर अपना नाम न छिपाने का फैसला किया. मुझे उम्मीद है कि इससे औरों को भी खुलकर बोलने की हिम्मत मिलेगी. बिना किसी शर्म या गिल्ट के.

हमें अपने बच्चों को भी यही सिखाना है कि हमें चुप नहीं रहना है.

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