अनिल अनूप
[ हरिमोहन झा आधुनिक मैथिली साहित्य के शिखर-पुरुष हैं, उन्हें हास्य-व्यंग्य सम्राट कहा जाता है़ मैथिली के आरंभिक कहानीकारों में वे शीर्षस्थ रहे हैं. वैसे तो उनकी ज़्यादातर कहानियों में व्यंग्य की प्रधानता है, लेकिन उस पहचान से हटकर कुछ बिल्कुल ही अलग तरह की कहानियां भी उन्होंने लिखी हैं. पांच पत्र हरिमोहन झा की उन्हीं में से एक ऐतिहासिक महत्व की कहानी है़. छोटी-सी इस कहानी की चर्चा मैथिली के प्रायः सभी आलोचकों-विचारकों ने की है़ । इन चर्चाओं में इस बात पर अमूमन सब की सहमति रही है कि इसमें जीवन के औपन्यासिक विस्तार समाहित है़ भारतीय समाज की जीवन-स्थिति और पारिवारिक ताने-बाने को इतने कम शब्दों में उजागर करने वाली कहानी विरल है़ पचास साल की कथा, पीढ़ियों का अंतर, स्त्री-पुरुष संबंध, आधुनिकता का प्रवेश, परंपराओं की टकराहट सब कुछ इतने कम शब्दों में...आप खुद ही देख लीजिए]
पहला पत्र
दरभंगा
दिनांक: 1-1-1921
प्रियतमे,
तुम्हारी लिखी हुई चार पंक्तियों को चार सौ बार पढ़ा! फिर भी तृप्त नहीं हुई. आचार्य की परीक्षा निकट है, किंतु पठन-पाठन में ज़रा भी मन नहीं लगता है. सर्वदा तुम्हारी मोहिनी मूरत मेरी आंखों में नाचती रहती है.
राधा-रानी. दिल चाहता है, कि तुम्हारा गांव वृंदावन बन जाता, जहां केवल तुम और मैं, राधा और कृष्ण की भांति अनंत काल तक विहार करते. परंतु हम दोनों के बीच में बाधा डालते हैं तुम्हारे पिताजी, जो दो महीने के बाद, होली के अवसर पर मुझे आने के लिए लिखते हैं. साठ वर्ष के वृद्ध को क्या मालूम कि साठ दिन का विरह कैसा होता है.
प्राणेश्वरी! तुम एक काम करो, माघी अमावस्या को सूर्यग्रहण लग रहा है. उसी अवसर पर अपनी मां के साथ सिमरिया घाट आओ. मैं वहां जाकर तुम्हें ढूंढ़ लूंगा. हां, एक गुप्त बात लिख रहा हूं. जब सभी स्त्रियां ग्रहण-स्नान करने चली जाएंगी, तब तुम कोई बहाना बनाकर डेरे पर रह जाना. मेरा एक मित्र फ़ोटो खींचना जानता है. उससे मैं तुम्हारा फ़ोटो खिचवाऊंगा. देखना, यह बात और कोई जानने न पावे. अन्यथा तुम्हारे और मेरे पिताजी जैसे हैं, सो तो तुम्हें मालूम ही है.
हृदयेश्वरी, मैं तुम्हारी फरमाइश का गहना चंद्रहार ख़रीद कर रखे हुए हूं. सिमरिया में भेंट होने पर चुपचाप दे दूंगा. किंतु किसी को मालूम न हो. यदि मेरे पिताजी को पता चल जाएगा, तो ख़र्चा देना भी बंद कर देंगे. हां, इस पत्र का जवाब शीघ्र ही लौटती डाक से देना. इसीलिए लिफ़ाफ़े के अंदर सादा लिफ़ाफ़ा डाल रहा हूं. पत्रोत्तर देने में एक दिन का भी विलंब मत करना. मेरे लिए एक-एक क्षण युग सदृश लग रहा है.
तुम्हारी प्रतीक्षा में व्यग्र
तुम्हारा कृष्ण.
पुनश्च : हां, एक बात और! चिट्ठी लेटर-बॉक्स में डालने के लिए दूसरे किसी को नहीं भेजना, ख़ुद अपने हाथों डाल देना. रात कुछ बाक़ी ही रहे तभी अपने आंचल में छिपा कर ले जाना और वहां जब कोई न रहे तब लेटर-बॉक्स में चिट्ठी डाल देना.
दूसरा पत्र
हथुआ संस्कृत विद्यालय
तारीख़: 1.1.1931
प्रिये,
बहुत दिनों पर तुम्हारा पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई. तुम लिखती हो कि बच्ची अब तुसारी (मिथिला में मनाया जाने वाला एक त्योहार) पूजेगी. मैं उसके लिए एक आठ हाथ वाली साड़ी शीघ्र ही भेज दूंगा. बंगट अब स्कूल जाता है या नहीं? शैतानी तो नहीं करता है? तुम लिखती हो कि छोटी बच्ची के दांत निकल रहे हैं, सो तुम उसके लिए वैद्यजी से दवा मांग कर देना. तुम्हें भी इस बार घर पर बहुत दुबली देखा था. क्षीरकादिपाक बनाकर सेवन करो! जाड़े के मौसम में शरीर पुष्ट नहीं होगा तो दिन-दिन और दुबली होती जाओगी. वहां गाय का दूध प्रतिदिन पिया करो. कम-से-कम एक पाव नित्य. मैं कुछ दिनों के लिए यहां बुलवा लेता. किंतु यहां रहने में बहुत कठिनता है. दूसरी बात यह है कि विद्यालय से कुल साठ रुपये मिलते हैं. उससे यहां पांच आदमियों का गुज़ारा चलना कठिन है. तीसरी बात है कि बूढ़ी (मां) के पास कौन रहेगा? यही सब सोच कर रह जाता हूं. अन्यथा तुम्हारे यहां रहने से मुझे भी लाभ ही होता. दोनों समय तुम्हारे हाथ का बना भोजन मिलता. बंगट के पढ़ने की भी सुविधा होती. छोटी बच्ची को देख कर मन भी बहलता, परंतु क्या किया जाए?बड़ी बच्ची कुछ स्यानी हो जाए, तो उसे मां की सेवा में रख कुछ दिनों के लिए तुम यहां आ सकती हो. किंतु अभी तो घर छोड़ना तुम्हारे लिए संभव नहीं. मैं होली की छुट्टी में घर आने की चेष्टा करूंगा. यदि न आ सका तो मनीऑर्डर द्वारा रुपये भेज दूंगा.
तुम्हारा,
देवकृष्ण
तीसरा पत्र
हथुआ संस्कृत विद्यालय
दिनांक: 1.1.1941
शुभाशीर्वाद.
तुम्हारा पत्र पाकर मैं घोर चिंता में डूब गया. इस साल की फ़सल बर्बाद हो गई. फिर साल भर तक गुज़ारा कैसे चलेगा? मां के श्राद्ध में पांच सौ रुपए क़र्ज़ लिये, जिसका सूद दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. दो महीने में बंगट की परीक्षा होगी. लगभग पचास रुपये फीस लगेगी. यदि पास हो गया तो किताबों में भी रुपये लग ही जाएंगे. मैं उसी चिंता में ऊब-डूब हो रहा हूं. यहां मैं एक माह का अग्रिम वेतन ले चुका हूं. तो भी एक सौ ऊपर से और क़र्ज़ा हो गया है. ऐसी स्थिति में 68 रुपये 14 आने मालगुजारी के लिए कहां से भेजूं? यदि हो सके, तो तम्बाकू बेच कर पिछला बकाया अदा कर देना. भोलबा बटाईदारवाले खेत में इस बार रबी की फ़सल कैसी है? घर में एक मास के लिए भी चावल नहीं है, फिर भी तुम लिखती हो, कि बच्ची ससुराल से दो महीने के लिए आना चाहती है. यह जान कर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूं. वह गर्भवती है और उसके दो बच्चे हैं. सभी को संभालना तुमसे पार लगेगा? अब छोटी बच्ची दस साल की हो गयी. उसके विवाह की चिंता है. रात-रात भर यही सब सोचता रहता हूं. परंतु अपना साध्य ही क्या है? देखना चाहिए ईश्वर किस तरह बेड़ा पार लगाते हैं.
शुभाभिलाषी
देवकृष्ण
चौथा पत्र
हथुआ संस्कृत विद्यालय
दिनांक: 1.1.1951
आशीर्वाद!
मैं दो महीने से बहुत अस्वस्थ था। इसलिए पत्र नहीं भेज सका. तुम लिखती हो कि बंगट पत्नी को लेकर कलकत्ता चला गया. सो आजकल बेटा-बहू जैसे नालायक होते हैं, वह तो ज्ञात ही है. मैंने उसके लिए क्या-क्या नहीं किया? किस प्रकार उसे बी.ए. पास कराया, सो मैं ही जानता हूं. अब वह उसका प्रतिफल दे रहा है. मैंने तो उसी दिन उसकी आशा छोड़ दी, जिस दिन से मेरे जीते जी वह मूंछें छंटवाने लगा. सास के बहकावे में आकर हम लोगों को अपनी कमाई का रुपया नहीं देता है. मुझे यह मालूम होता कि बहू आते ही ऐसा करने लगेगी, तो मैं कदापि वैसे घर में बंगट का विवाह नहीं करता. पंद्रह सौ दहेज लेकर मैंने जो पाप किया, उसका फल भुगत रहा हूं. उसमें तो अब पंद्रह पैसे भी बाक़ी नहीं रहे. फिर भी बेटा समझ रहा है कि बाबूजी घड़े में रुपये गाड़ कर रखे हुए हैं. बंगट अब कुछ भी नहीं देगा. और नहीं, तो बहू भी तुम्हारे साथ रहती. उसे चाहिए था कि तुम्हारे साथ रहकर भोजन बनाती, सेवा-सुश्रुषा करती. किंतु वह तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध बंगट के साथ कलकत्ता चली गयी. वहां बंगट को 150/- रुपए में ख़ुद का ख़र्च चलाना मुश्किल है. स्त्री को कहां से खिलाएगा? जो हमलोगों ने 30 वर्षों में नहीं किया, सो इन लोगों ने द्विरागमन( शादी के बाद लड़की का ससुराल जाना ) से तीन महीने के भीतर कर दिखाया. अस्तु! क्या करोगी? अभी वह नहीं समझता है. जब ज्ञान होगा, तब उसे स्वयं सब कुछ दीखने लगेगा. ईश्वर उसे सम्मति दे. अधिक क्या लिखूं?
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति. देवकृष्ण
पुनश्च: यदि घर-ख़र्च की तकलीफ़ हो तो जो ज़मीन तुम्हारे नाम पर है, उसे भरना (गिरवी) रख कर काम चलाना. तुम्हारा चंद्रहार जो बंधक रखा हुआ है, सो जब भगवान की कृपा होगी तब कभी छूट ही जाएगा.
पांचवां पत्र
काशी
तारीख: 1.1.1961
स्वस्ति श्री बंगट बाबू को मेरा शुभाशीर्वाद.
यहां कुशल है. वहां की कुशल-कामना करता हूं. पश्चात समाचार यह है कि इस जाड़े के मौसम में मुझे दमे की बीमारी पुन: उभर आयी है. सारी रात बैठ कर सांस लिया करता हूं. अब काशी विश्वनाथ मुझे कब इस संसार से उठाते हैं, सो मालूम नहीं. संग्रहणी भी नहीं छोड़ रही है. अब हमलोगों की दवा ही क्या है? औषधं जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणो हरि:.' यहां सत्यदेव मेरी सेवा करता है. नित्य मालिश करता है. गीला भात और केले का चोखा बना दिया करता है. तुम्हारी मां को बातरस की बीमारी हो गयी है, सो जान कर बहुत दु:ख हुआ. किंतु अब उसका उपाय ही क्या है? वृद्धावस्था का कष्ट तो भुगतने में ही कुशल है. बूढ़ी चल-फिर सकती है या नहीं? मैं आकर देखता, परंतु आने-जाने में तीस-चालीस रुपये व्यर्थ ही ख़र्च हो जाएंगे. दूसरी बात यह है कि अब यात्रा करने में मुझे भी कष्ट होता है. तुमने लिखा है कि वह भी काशी-वास करना चाहती है. परंतु यहां बहुत कष्ट होगा. वह अपनी परिचर्या करने लायक़ तो है ही नहीं. मेरी सेवा क्या करेगी? और, दूसरी बात यह है कि जब तुम लोगों जैसा सुयोग्य बेटा-बहू पास में मौजूद हैं, तब घर छोड़ कर यहां क्या करने आएगी. मन चंगा तो कठौती में गंगा। वहां पर पोते-पोती को देखती रहती है. चिरंजीवी पौत्र को देखने की मुझे भी इच्छा होती रहती है. परंतु उपाय क्या? यज्ञोपवीत होने तक यदि मैं जीवित रहा तो आकर आशीर्वाद दे जाऊंगा. तुम्हारा भेजा हुआ 30 रुपये का मनीऑर्डर मुझे मिल गया है. उससे च्यवनप्राश ख़रीदकर खा रहा हूं. भगवान तुम्हें सुखी रखे. चिरंजीवी बहू को मेरा शुभाशीर्वाद कह देना. वह गृहलक्ष्मी है. तुम्हारी मां जो उससे झगड़ा करती है, सो परम अनर्गल करती है. परंतु बूढ़ी का स्वभाव तो तुम्हें मालूम ही है. वह जीवन भर मुझे दु:ख देती रही. अस्तु! कुमाता जायेत क्वचिदपि कुपुत्रो न भवति इस उक्ित को तुम चरितार्थ करना।
इति देवकृषस्य
पुनश्च: यदि किसी दिन बूढ़ी को कुछ हो जाए तो तुम लोगों की बदौलत उनकी सद्गति होगी ही. जिस दिन उन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हो, उस दिन एक लकड़ी मेरी ओर से भी उन पर डाल देना.