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रिक्त

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कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये

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