कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?
मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!
सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,
फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,
कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!
पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?
रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये कहीं न कहीं?
भिगोते हैं जब इसे, भावों की भीगी नमी,
इस हृदय के ताल में, भँवर लिए आते हैं ये कई,
गीत स्नेह के अब गाएगी, रिक्त सी मन की ये जमी!
भावों से यूँ स्निग्ध होकर, कलप रहा है क्युँ ये मन?