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संगिनी

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मेरी जीवन संगिनी,मेरी अर्द्धांगिनी, मेरे सपनों की पथगामिनी,प्रकृति के सानिध्य में रहने कीआकांक्षा लिए एक गृह स्वामिनी,प्रबंधन में व्यवस्थित एक गृ

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लाठी की टेक लिए चश्मा चढाये,सिर ऊँचा कर मां की तस्वीर पर,एकटक टकटकी लगाए,पश्चाताप के ऑंसू भरे,लरजती जुवान कह रही हो कि,तुम लौट कर क्यों नहीं आई,शायद खफा मुझसे,बस, इतनी सी हुई,हीरे को कांच समझता रहा,समर्पण भाव को मजबूरी का नाम देता,हठधर्मिता करता रहा,जानकर भी, नकारता र

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