लाठी की टेक लिए चश्मा चढाये,
सिर ऊँचा कर मां की तस्वीर पर,
एकटक टकटकी लगाए,
पश्चाताप के ऑंसू भरे,
लरजती जुवान कह रही हो कि,
तुम लौट कर क्यों नहीं आई,
शायद खफा मुझसे,बस,
इतनी सी हुई,
हीरे को कांच समझता रहा,
समर्पण भाव को मजबूरी का नाम देता,
हठधर्मिता करता रहा,जानकर भी,
नकारता रहा,फिर, पता नहीं कौन सी बात,
दिल को लगा बैठी,और एक दिन यूं रूठकर चली गई
अपने आप को कोसता रहा,लौट आने की,
मंदिरों में मन्नतें मांगता रहा,गुहार करता रहा,
तुमसे दो शब्द कहना चाहता हूँ,तुम तो दया की मूरत,
मेरे प्रतिकारो को,विस्मृत करके लौट आओ,
लेकिन समझता हूं कि,तुम्हारे लौट के ना आने का....