*शासक, प्रजा, धर्म और जातियां*
आदि काल के आरंभ में एक से बहुत की कल्पना साकार होने लगी।
आदि काल के आरंभ में एक से बहुत की कल्पना साकार होने लगी। लोग जंगल मे गुफाओं आदि सुरक्षित जगहों पर यत्र तत्र (यहां वहांं )रहने लगे थे। तब धर्म और जाति एक ही थी *मानव*। धीरे धीरे मानव समाज का बौद्धिक विकास हुआ। मानव द्वारा *अन्नमयकोष* ( अन्न से उत्पन्न और अन्न के आधार पर रहने के कारण शरीर को अन्नमय कोष कहा गया है। अन्न शरीर को पुष्ट करता है। ) *प्राणमयकोष* ( पंच कर्मेंद्रियों सहित प्राण, अपान आदि पंचप्राणों को, जिनके साथ मिलकर शरीर सारी क्रियाएँ करता हैं, प्राणमय कोष कहते हैं।प्राण को नियंत्रित करना ही प्राणमयकोष है। ) *मनोमयकोष* ( श्रोत्र, चक्षु आदि पाँच ज्ञानेंद्रियों सहित मन को मनोमय कोष कहते हैं। मन को एकाग्रचित्त करना ही मनोमयकोष है। ) और *विज्ञानमयकोष* ( अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना विज्ञानकोष। अपनी गलतियों में सुधार करना ही विज्ञान है। अन्नमयकोष, प्राणमयकोष और मनोमयकोष में आए दोषों का निवारण करना ही विज्ञानमयकोष है। ) नियंत्रित होने लगे। ज्ञान बढा तो धीरे धीरे लोग खुशहाली और सुविधा को ढूंढते ढूंढते तराई क्षेत्र जो नदियों के आसपास का क्षेत्र था, अपने अपने परिजनों के साथ रहने लग गए। दूर दराज मे छोटे-छोटे कबीले बनने लग गए। कबीलो में जनसंख्या होने लगी,परिणामतः मनमुटाव अव्यवस्थाऐं बढ़ने लगी अर्थात सात्त्विक और तामसिक प्रवृत्तियां पनपने लगी। नियंत्रित कोषों से मानव की बौद्धिक क्षमता का विकास होने लगा। छोटे कबीलो में डर और भय के कारण कबीला प्रमुख की जरुरत महसूस हुई जो कबीले को अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा प्रदान करने का काम कर सके। डर भय और बौद्धिक विकास के कारण ही प्रथम नींव पड़ी थी *कबीला प्रमुख* की। धीरे धीरे कबीले अन्न, पशु और नियंत्रित चार कोषों के सहारे भौतिक और आत्मिक विकास करने लगे और साथ साथ में जनसंख्या भी बढ़ने लगी। वहांं )रहने लगे थे। तब धर्म और जाति एक ही थी *मानव*। धीरे धीरे मानव समाज का बौद्धिक विकास हुआ। मानव द्वारा *अन्नमयकोष* ( अन्न से उत्पन्न और अन्न के आधार पर रहने के कारण शरीर को अन्नमय कोष कहा गया है। अन्न शरीर को पुष्ट करता है। ) *प्राणमयकोष* ( पंच कर्मेंद्रियों सहित प्राण, अपान आदि पंचप्राणों को, जिनके साथ मिलकर शरीर सारी क्रियाएँ करता हैं, प्राणमय कोष कहते हैं।प्राण को नियंत्रित करना ही प्राणमयकोष है। ) *मनोमयकोष* ( श्रोत्र, चक्षु आदि पाँच ज्ञानेंद्रियों सहित मन को मनोमय कोष कहते हैं। मन को एकाग्रचित्त करना ही मनोमयकोष है। ) और *विज्ञानमयकोष* ( अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना विज्ञानकोष। अपनी गलतियों में सुधार करना ही विज्ञान है। अन्नमयकोष, प्राणमयकोष और मनोमयकोष में आए दोषों का निवारण करना ही विज्ञानमयकोष है। ) नियंत्रित होने लगे। ज्ञान बढा तो धीरे धीरे लोग खुशहाली और सुविधा को ढूंढते ढूंढते तराई क्षेत्र जो नदियों के आसपास का क्षेत्र था, अपने अपने परिजनों के साथ रहने लग गए। दूर दराज मे छोटे-छोटे कबीले बनने लग गए। कबीलो में जनसंख्या होने लगी,परिणामतः मनमुटाव अव्यवस्थाऐं बढ़ने लगी अर्थात सात्त्विक और तामसिक प्रवृत्तियां पनपने लगी। नियंत्रित कोषों से मानव की बौद्धिक क्षमता का विकास होने लगा। छोटे कबीलो में डर और भय के कारण कबीला प्रमुख की जरुरत महसूस हुई जो कबीले को अंदरूनी और बाहरी सुरक्षा प्रदान करने का काम कर सके। डर भय और बौद्धिक विकास के कारण ही प्रथम नींव पड़ी थी *कबीला प्रमुख* की। धीरे धीरे कबीले अन्न, पशु और नियंत्रित चार कोषों के सहारे भौतिक और आत्मिक विकास करने लगे और साथ साथ में जनसंख्या भी बढ़ने लगी।
कबीले दूर दराज मे होने पर भी लोग एक दूसरे के कबीलों पर अन्न और पशुओं के लिए हमला कर लूटपाट करने लगे जिससे एक दूसरे के प्रति असुरक्षा का माहौल पैदा होने लगा। सुरक्षा के लिए दो चार छः आठ दस कबीले मिलकर कबीलों का समूह बनने लगे। कबीलों के समूह का नेतृत्व किसी निडर,वीर,साहसी को दिया गया जो कबीले का शासक या मुखिया कहलाता था। यहां तक आते आते मानव समाज में *शासक और प्रजा* के रूप में दो भाग हुए। कबीलों का शासक प्रत्येक कबीले से निडर, वीर और बहादुर लोगों का साथ लेकर हमलावरों,चोर डकैतों से अपने कबीलों की रक्षा करता था। यहां तक यह *शासक* प्रजा को केवल सुरक्षा प्रदान करते थे। कबीले वाले अपना अपना काम करते और अपने अपने परिजनों का भरण-पोषण स्वयं ही करते थे। कबीले वालों द्वारा नियुक्त कबीले के शासक और उसके सहयोगियों के लिए अन्न पशु आदि कुछ सामग्री भी शासक को दिया करते थे जिससे उनका भरण-पोषण हो सके। चार कोषों के नियंत्रण और बौद्धिक क्षमता बढ़ने से बुद्धिजीवी मानव *मैं, हम, कौन और क्यों* के शाश्वत प्रश्न विषय में ध्यानातीत होने लगे। अलग अलग जगहों पर अन्न, पशु और फलों की कम ज्यादा पैदावार होती थी। कुछ लोग अन्न, पशु और फलों को अलग-अलग कबीलों में पहुंचाया करते थे और बदले में अन्न, पशु और फल ही लिया करते थे। जैसे किसी को अन्न चाहिए होता तो वह उनसे अन्न ले लेता और बदले में पशु या फल दे देता था। यहां तक आते आते मानव में शासक, प्रजा और व्यापारी ये तीन वर्ग हो गए थे। शासकों ने इन व्यापारी वर्ग को सुरक्षा, संरक्षण और सुविधाएं उपलब्ध कराई। व्यापारी वर्ग सुरक्षा के बदले में शासक को भेंटें देते थे।विकास की गति बढ़ने लगी तो ज्ञान भी बढ़ने लगा। धीरे धीरे समझ बढ़ी तो शासक और कबीलों के लिए हक और जिम्मेदारी के मर्यादा सिद्धांत बनने लगे। मर्यादा सिद्धांत बनाने का काम कबीलों के बुद्धिजीवी लोगों द्वारा किया गया। यहां तक मानव समाज में शासक, प्रजा, व्यापारी और बुद्धिजीवी ये चार वर्ग बन गए। यहां तक आते आते बुद्धिजीवी मानव ने अन्नमयकोष, प्राणमयकोष, मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष को निर्दोष करके आनन्दमयकोष को प्राप्त कर चुके थे।
बुद्धिजीवी नियंत्रित कोषों और गहन ध्यान में आत्मीक ज्ञान से वेदों के नख- शिख के सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो गए थे। यहीं से इस वैदिक ज्ञान स्वभाव से सनातन धर्म का उदय हुआ। बुद्धिजीवी वर्ग मर्यादा सिद्धांतों में उत्तरोत्तर कबीलों के हित में परिवर्तन करते रहते थे। कालांतर में सुरक्षा के वास्ते कबिलों के बड़े बड़े समूह साथ रहने लगे। शासक वर्ग पर सुरक्षा की जिम्मेदारियां बढ़ने लगी। शासक वर्ग को अपनी जिम्मेदारियों को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्मचारियों की जरूरत महसूस हुई और तब कर्मचारी वर्ग बना। यहां तक आते-आते मानव सभ्यता में शासक, प्रजा, व्यापारी, बुद्धिजीवी और कर्मचारी आदि पांच वर्ग हो गए। मानव सभ्यता का यह काल सर्वश्रेष्ठ काल था। कालांतर में शासक वर्ग कर्मचारी वर्ग के कारण मजबूत होकर उभरा।
मजबूत शासक ने बुद्धिजीवी लोगों के द्वारा मानव समुदाय को कर्म आधारित चार वर्णों में बांटा गया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। जो शोधकर्ता थे उनको ब्राह्मण वर्ण में रखा गया, वीरोचित कार्य करनेवालो को क्षत्रिय वर्ण में रखा गया, व्यापारिक कार्य करनेवालो को वैश्य वर्ण तथा समाजोपयोगी कार्य करनेवालो को शूद्र वर्ण में रखा गया। वर्ण कर्म पर आधारित थे स्थाई नहीं थे। जो जैसा कर्म करता वह उस वर्ण में गिना जाता था। यहां तक व्यवस्थाओं में रहने वाले व्यक्ति को जीविकोपार्जन स्वयं को ही करना होता था। शासक पर केवल सुरक्षा का ही दायित्व होता था। शासक वर्ग कर्मचारियों के सहयोग से धीरे धीरे ओर मजबूत होता गया। शासक वर्ग ने प्रजा में व्याप्त डर भय को अपने अस्त्र शस्त्र के रूप में प्रजा के विरुद्ध ही प्रयोग किया।
शक्तिशाली शासकों ने बुद्धिजीवियों से मर्यादा सिद्धांतों को छल बल द्वारा अपने अनुकूल करवा लिया। मर्यादा सिद्धांतों में बदलाव के कारण ही शासक के वीर,निडर और बहादुर जैसे गुणों से अलग हटकर शासक की संतान ही शासक होगी यह मार्ग प्रशस्त हुआ। इस अनुचित परिपाटी को निर्विघ्न संपन्न होते रहने के लिए छल बल द्वारा चारों वर्णों को जन्म आधारित सिद्धांतों का प्रतिपादन करवा लिया। शासक के डर भय से तब वर्ण स्थाई जातियों का रूप लेने लगे। शासक वर्ग इतना मजबूत और शक्तिशाली हो गए थे कि छल-कपट और बल से बुद्धिजीवियों के द्वारा उस अविनाशी आत्मा का साकार रूप वर्णन करवा दिया। देवी, देवता, अवतार, स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य अध्यात्म में शामिल हो गया। गीता में कहा गया है कि रजोगुण कामनाओं और लोभ के कारण उत्पन्न होता है, जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों में बँध जाता है। छल-कपट डर भय से बुद्धिजीवियों ने वेदों में छेड़छाड़ करके और वेदों का सहारा लेकर साकार रूपों के वर्णनों को शास्त्रबद्ध व इतिहास बद्ध कर किया। ये साकार रूपों को मानने वाले शासकीय व्यवस्थाएं संसार के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण सर्वत्र प्रचलित हो गई थी। अब प्रजा शब्द अपने मूल अर्थ को खो चुका था और जातियों में ही बलवान और कमजोर हो रहा था। शासकों का सुरक्षित भविष्य इसी में ही निहित था इसलिए सभी शासकों ने इसी व्यवस्था को शक्ति से आगे बढ़ाया। प्रजा को जीविकोपार्जन के कम ज्यादा अवसर रहने पर शासकों द्वारा आंशिक शासकीय सहायता प्रदान की जाने लगी। जातियों में बंटी भोली कामगार प्रजा को मुफ्तखोरी में आनन्द भी आने लगा। व्यवस्थाएं शासकों के अनुकूल होती गई। शासक वर्ग का आदिकाल से ही बुद्धिजीव वर्ग, वर्ण, जाती पर दबाव रहा। शासक वर्ग कमोबेश कम ज्यादा सभी वर्णों, वर्गों और जातीयों के रहे। शासकों की मनमानीयां बढती गई। मानव सभ्यता आत्मिक ज्ञान से हटने लगी और भौतिक ज्ञान के सहारे आगे बढ़ने लगी। शासक और प्रजा की अवधारणाएं खत्म हो गई। प्रजा को जातियों ने जकड़ लिया गया। इससे आगे बढ़कर शासकों ने संसार भर की प्रजा को मत मन्तान्तरो व पंथ सम्प्रदायो में उलझा दिया। मानव समुदाय निराकार, अविनाशी, वैश्विक उर्जा आत्म दर्शन से साकार रूप ईश्वर के रंग में रच बस गया और संसार के कोने-कोने में मानव जीवन पंथ, सम्प्रदायों में बंटता गया। धीरे धीरे कबीलों का स्थाई रूप देश ने ले लिया। देश की परिभाषा कबीलों से हटकर भौगौलिकता पर आधारित हो गयी। मजबूत और शक्तिशाली शासक भौगौलिक विस्तारवाद के लिए एक दूसरे देशों पर बलात अतिक्रमण करके शासन करने लगे। प्रजाएं छटपटाने लग गई। मानव सभ्यता में आदि काल से लेकर अभी तक अनेकों उतार चढ़ाव के बाद भारत में लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था आई। जिसमें प्रजा को ही शासक चुनने का अधिकार मिलता है। प्रजा को लगा कि अब देश में शासक और प्रजा का दिवास्वप्न साकार होगा। लेकिन दुर्भाग्य रहा कि प्रजा के उसी डर भय का इस्तेमाल करते हुए लोकतंत्र में भी शासक वर्ग ने जातिवाद को अधिक महत्व देते हुये जातिवाद को लामबंद भी किया और पंथों, सम्प्रदायों को बढ़ावा दिया और उनको सुरक्षा भी मुहैया कराई। प्रजा को जातिवाद, पंथ सम्प्रदायों से जकड़ने के लिए मर्यादा सिद्धांत यानी संविधान का सहारा भी लिया। प्रजा आज भी जातियों, पंथों सम्प्रदायों के भंवर जाल में फंसी हुई है। सारी व्यवस्थाएं पूर्व की तरह शासक और जाति, पंथ, सम्प्रदाय आधारित चल रही है। कमोबेश सम्पूर्ण संसार में यही व्यवस्थाएं चल रही है। सत्य यह कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक अविनाशी शक्ति अजर अमर आत्मा के प्रभाव से संचालित होता है। यही आत्मिक ज्ञान है यही वेदों का ज्ञान है और यही शाश्वत सत्य है। लेकिन इससे परे आज सम्पूर्ण विश्व के शासकों द्वारा पोषित अनेकों पंथ सम्प्रदायों के अलग अलग अनेकों ईश्वर, देवी, देवता, पीर, पैगम्बर आदि इस ब्रह्माण्ड की व्यवस्था संचालित कर रहे हैं। प्रजा पूर्व की तरह संतुष्ट भी है।
ॐ तत सत ॐ तत सत ॐ तत सत