आज की तारीख़ 10 मई 1857 को मेरठ से भारत के प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम का आरम्भ हुआ| हालाँकि बहुत से इतिहासकार इसे भारत का प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम नहीं मानते| कुछ इसे सिपाही विद्रोह मानते हैं, कुछ
राजा-रजवाड़ों/ज़मींदारों का विद्रोह तो कुछ उत्तर भारत का विद्रोह मानते हैं| और
ऐसा है भी नहीं कि इससे पहले अंग्रेजों के विरुद्ध कोई युद्ध न हुआ हो| ईस्ट
इंडिया कंपनी द्वारा भारतीय राज्यों की शासन व्यवस्था में हस्तक्षेप के साथ ही
विरोध शुरू हो गया था किन्तु वो विरोध राज्यों, ज़मींदारों या अन्य समूहों द्वारा
अपने अपने हितों की रक्षा के लिए अलग अलग समय पर अलग अलग जगह पर किये गए व्यक्तिगत
प्रतिरोध थे| वहीँ 10 मई 1857 को आरम्भ हुए संग्राम का मकसद हिंदुस्तान से अंगेजों
को उखाड़ फेंकना था| ये सही है की अंग्रेजों के विरुद्ध ये संग्राम मुख्यतः आज के
दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के क्षेत्र में
प्रभावी था परन्तु ये भी सत्य है कि दिल्ली का लाल क़िला उस समय भी पूरे हिंदुस्तान
का राजनैतिक केंद्र बिंदु था| तब भी जबकि नादिर शाह के आक्रमण के बाद मुग़ल बादशाह
का कोई वर्चस्व नहीं रहा था| मेरठ को कब्ज़े में लेने के बाद सिपाहीयों ने अंग्रेजों
को खदेड़ कर 11 मई को लाल किले पर कब्ज़ा किया और मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को
“शहंशाह ए हिंदुस्तान” घोषित करके इस विद्रोह को अखिल भारतीय स्वरुप दे दिया|
भारतीयों के अदम्य साहस और शहादतों के बावजूद ये
संग्राम विफल रहा| विभिन्न इतिहासकार संग्राम की विफलता के विभिन्न कारण मानते
हैं, जिनमें दो कारण मुख्य हैं|
एक तो ये कि संग्राम के नायक “अतीत के बंधक” थे| उन्हें
लगता था कि अंग्रेज़ ही उनकी सारी समस्याओं की जड़ हैं, एक बार अंग्रेज़ देश से चले
गए तो अतीत का स्वर्णिम युग वापस आ जाएगा| इसलिए उनका लक्ष्य सिर्फ अंग्रेजों को
हिन्दुस्तान से भगाने पर केन्द्रित था, परन्तु अंग्रेजों के जाने के बाद भारत को
एकजुट, गतिशील एवं सम्रद्ध बनाने के लिए उनके पास किसी नयी वैकल्पिक व्यवस्था का
अभाव था| आज के सामान्य परिप्रेक्ष्य में
देखें तो आज भी हम सम्बंधित शासन-प्रशासन व्यवस्था का विरोध तो करते हैं, हमें
लगता है कि अमुक व्यवस्था में परिवर्तन हो गया तो हमारी सारी तकलीफें दूर हो
जायेंगीं परन्तु हमारे पास स्पष्ट वैकल्पिक व्यवस्था का अभाव होता है| इसी वजह से
व्यवस्था परिवर्तन का चक्र चलते रहने के बावजूद हम अपनी तकलीफों/समस्याओं का कोई
समाधान नहीं निकाल पाते|
दूसरा ये कि 1857 के संग्राम में हम एक राष्ट्र
के तौर पर एकजुट नहीं हुए| कई राज्यों ने अपने निजी हित को सर्वोपरि रखते हुए इस
संग्राम से दूरी बनाकर रखी और कुछ ने तो अपने ही देशवासियों के विरुद्ध अंग्रेजों
का साथ भी दिया| अधिकाँश दक्षिण भारतीय राज्य इसे उत्तर भारतीय राज्यों का निजी
मामला मानकर दूर ही रहे| आज भी हमारे देश में जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख
अब्दुल्ला जैसे नेता हैं जो अपने दलगत स्वार्थ के चलते अपने ही देशवासियों को
पाकिस्तान का डर दिखाते हुए कहते हैं कि अगर भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर
किसी तरह की कार्यवाही की तो पाकिस्तान ने भी चूड़ियाँ नहीं पहनीं, उनके पास एटम बम
है जो हम पर ही गिरेगा| वहीँ सैम पित्रोदा ये बयान देते हैं कि उत्तर भारतीय
अंग्रेज़ जैसे दिखते हैं, पूर्वी भारत के लोग चीनी जैसे, पश्चिम भारत के लोग
अरबियों जैसे और दक्षिण भारतीय अफ्रीकी जैसे दिखते हैं| कोई सिर्फ चमड़ी के रंग के
आधार पर किसी को अंग्रेज़ और किसी को अफ्रीकी कैसे कह सकता है| हमारी कद-काठी,
चेहरा-मोहरा सब तो भिन्न है| और रंग की बात भी करें तो अंग्रेज़ सफ़ेद होते हैं और
उत्तर भारतीय गेंहुए रंग के| इस तरह से सैम पित्रोदा अंग्रेजों की आर्यों के
आक्रमण के सिद्धांत का समर्थन कर रहे हैं| इनके हिसाब से हममें से कोई मूलतः भारतीय
तो है ही नहीं, कोई यूरोपीय है, कोई अफ्रीकी तो कोई चीनी|
आज भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आरम्भ
दिवस पर हम ये संकल्प लें कि जिन कारणों से हमारे पूर्वज उस संग्राम को नहीं जीत
पाए थे हम उन्हें अपने द्रष्टिकोण में अपने व्यवहार में आने नहीं देंगे| हम सबके
अन्दर राष्ट्रीय चेतना प्रज्वलित होगी और राष्ट्रहित ही हमारे लिए सर्वोपरि
होगा|
जय हिन्द||