अभी हाल में रिलीज़ हुई फिल्म आदिपुरुष के विरुद्ध हाईकोर्ट में दाखिल एक याचिका की सुनवाई के दौरान माननीय न्यायाधीश की टिप्पणी में एक सवाल छुपा है, हम सब के लिए| हालांकि माननीय न्यायाधीश की मंशा ये बताने की थी कि हम कितने सहिष्णु और शांतिप्रिय हैं| परन्तु क्या उक्त टिप्पणी में ये अर्थ अन्तर्निहित नही था, कि हम इतने कमज़ोर और असहाय हो गए हैं कि कोई भी हमारी
संस्कृति का अपमान करने की हिम्मत कर सकता है|
क्या सहस्त्रों वर्षों के विदेशी आक्रमणों और दमन ने हमारी हड्डीयों में इतना पानी भर दिया है कि हम अपनी राष्ट्र-संस्कृति की रक्षा के लिए एक साथ खड़े नहीं हो पा रहे? क्या हमारी संस्कृति का अपमान होते देख हमारी नसों में बहते हुए खून में उबाल नहीं आता? क्या धर्मनिपेक्षता, वसुधैव कुटुम्बकम, अहिंसा परमो धर्मः, आपसी भाईचारा जैसे शब्दों का सही अर्थ न बताकर हमें दशकों से गुमराह किया जा रहा है? अपनी संस्कृति और अपने सम्मान का बलिदान कर हम कौन सा भाईचारा प्राप्त कर
लेंगे? क्या हिंसा का प्रतिकार न करना स्वयं पर हिंसा नहीं?
सवाल कड़वे जरुर हैं, पर सच हैं| सोंचियेगा जरुर||