मुझे राजनीति में बहुत दिलचस्पी नहीं, लेकिन दिल्ली के चुनावों में मची ‘मारकाट’ तकलीफदेह है. मैं नहीं जानता कि दिल्ली के मतदाता इन चुनावों के प्रति कैसा नजरिया रख रहे हैं. हाँ, कभी कभी मीडिया के सर्वेक्षणों के नतीजे और भविष्यवाणियाँ यह जताते हैं कि वहां लडाई कांटे की है. मुझे इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैं दिल्ली का मतदाता नहीं हूँ. फिरभी, एक जागरूक नागरिक के नाते फ़िक्र तो होती ही है. एक नवोदित दल और एक सबसे बड़ा बनने की और अग्रसर राष्ट्रीय दल के बीच मचा घमासान मन को परेशान करता है.
दुखद यह है कि लगभग सारे दल मतदाताओं को ‘उल्लू’ समझकर व्यवहार करते दिख रहे हैं. यूं, उनका यह रवैया कोई नया नहीं है, पर बार बार वही पुराना राग अलापने से चतुर से चतुर मतदाता भी भ्रम का शिकार हो जाएं तो ताज्जुब नहीं. कितना अच्छा हो कि सभी दल महज अपने अपने कार्यक्रमों की बात करें और दोषारोपण भी करें तो उसमे शालीनता हो. मगर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है. मेरे एक मित्र बता रहे थे कि इस चुनावी दंगल से उन्हें खीझ होने लगी है. वजह- न छोटा वाला शालीन रह गया है न बड़ा वाला. कोई कब किसकी टोपी में छेद करने लगे कहना मुश्किल है. वैसे यह नजारा दिल्ली से बाहर किसी अन्य सूबे में होता तो गनीमत थी. मसला चूंकि देश की राजधानी से जुदा है, इसलिए इस शोर पर कोफ़्त होती है. किसी का विजन डाक्यूमेंट हो या फिर घोषणापत्र, बातें सबमे बड़ी लच्छेदार कही गयी हैं, ऐसा लगता है सबके सब सिर्फ विकास में माहिर हैं, मगर इसी तरह की बातें तो हर चुनाव में कही जाती हैं. सवाल यह है कि फिर इन घोषणापत्रों के मुताबिक़ नतीजे क्यों नहीं दिखते. लगता यह है कि किसी को वादों के क्रियान्वयन की बहुत फ़िक्र नहीं है. फ़िक्र है तो बस सत्ता की.
दिल्ली के मेरे मित्र कहने लगे कि कम से कम राजधानी में तो अब लिखित भाषणों का दौर शुरू होना चाहिए. मैं कह नहीं सकता कि यह कहाँ तक उपयोगी होगा, लेकिन इतना तो जरूर है कि लोगों को अपने कहे की जिम्मेदारी लेने से बचने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए. बात घूम फिरकर फिर वहीँ आती है कि राजनीतिक दलों में पारदर्शिता के अभाव में यह सब मुमकिन नहीं. सैद्धांतिक बातें तो सभी करते हैं, लेकिन उन पर ईमानदारी से अमल कम ही लोग कर रहे हैं. संकट का यह बड़ा कारण है. मतदाता भी इसी धमाचौकड़ी में सब कुछ भूल जाते हैं. ध्यान ही नहीं रहता कि वे जिसको वोट देने जा रहे हैं, उसे क्यों दे रहे हैं. इसी वजह से उन्हें पांच साल तक पछताने के सिवा कुछ नहीं मिलता.
दरअसल, आदर्श परिस्थिति तो यह होती कि लोग अपने अपने मुद्दे जनता के सामने रख देते और जनता को फैसला करने देते. उसे बरगलाने की फितरत से बाज आते, जनता जो फैसला करती, उसे कबूल करते, मगर ऐसा होता कहाँ है. यहाँ तो करो या मरो के हालात हैं. कोई भी इस मौके को गंवाना नहीं चाहता. सबके अपने हित हैं. जनता जनार्दन तो दोयम दर्जे की प्राणी है. छल, छद्म और प्रपंच के सहारे सबको कुर्शी चाहिए. जो लोग जनता के बीच वादों के पहाड़ खड़े कर रहे हैं, उन्होंने वास्तविक रूप से कितना अध्ययन किया है कहना मुश्किल है. क्या कहूं और ज्यादा. हफ्ते भर के बाद तो पिटारा खुल ही जाएगा, फिर मेरे जैसे लोगों की चिंताओं की फ़िक्र किसे होगी.