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गहराता संकट

15 नवम्बर 2015

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यह सचमुच विडम्बना ही है कि ऐसे समय में जबकि भयावह सूखे का सामना कर रहे किसानों को भरपूर मदद की दरकार है, हमारी व्यवस्था के नियामक अपनी अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त हैं. एक के बाद एक चुनावों में बाजी मारने की कवायद में वे यह भूल से चुके हैं कि अगर किसान का अस्तित्व संकट में पड़ा तो कोई भी कहीं का न रहेगा. मानसून ने अबकी बार, ख़ास तौर से उत्तर भारत में, जो रंग दिखाए हैं, वे बेहद हतोत्साहित करने वाले हैं. इनमें भी उत्तरप्रदेश कई इलाकों में हालात बेहद दयनीय हो चले हैं. इलाहाबाद, फतेहपुर, उन्नाव, हरदोई, इटावा, मैनपुरी और आसपास के जिले हों या फिर बुंदेलखंड क्षेत्र के यूपी वाले हिस्से में आने वाले चित्रकूट, बांदा, हमीरपुर, महोबा, उरई, झांसी और ललितपुर जिले, हर जगह किसानों की हालत पतली है. खरीफ की फसलें तबाह हो चुकी हैं और रबी के आसार भी बहुत अच्छे नहीं. इन इलाकों में सिंचाई के अभाव में धान की फसल चौपट हो चुकी है और ज्वार, बाजरा, उड़द, तिल, अरहर व अन्य फसलें भी कुम्हला रही हैं.

जिन दिनों उत्तरप्रदेश सरकार के जिम्मेदार लोग किसानों को सिंचाई के लिए भरपूर पानी देने के वादे कर रहे थे, आशंका तभी से थी कि ये वादे शायद ही पूरे हों और हुआ भी वही. किसानों ने धान की पौध तो येन केन प्रकारेण तैयार कर ली, मगर ज्यादातर इलाकों में रोपाई की नौबत नहीं आई. नहरों का समूचा तंत्र फेल सा हो गया, महकमे के इंजीनियर शहरों में बैठे बैठे ठंडी हवा खाते रहे और सारी उम्मीदें चकनाचूर होती रहीं. उत्तरप्रदेश सरकार मीडिया में विज्ञापनों के जरिए ढिंढोरा पीटती रही कि उसने सिंचाई शुल्क माफ़ करके किसानों पर बड़ा उपकार किया है और दूसरी तरफ किसान सूखी नहरों को देखकर सिर धुनते रहे. कुछ बड़ी नहरों में, बेशक पानी दौड़ाया गया, लेकिन छोटी नहरें अपने कायाकल्प के लिए ही आंसू बहाती रह गयीं. न तो इनकी सफाई कराई गयी और न ही किसी ने मौका मुआयना करके यह जानने की कोशिश की कि वस्तुतः हालात क्या हैं. नतीजा- छोटी नहरों की टेल तक आज भी पानी नहीं है. इलाहाबाद में कौंधियारा ब्लाक के जिस एक छोटे से गाँव से मेरा ताल्लुक है, कहने को वहां के किसानों को तीन नहरों से पानी मिलता है, लेकिन एक बड़ी नहर को छोड़कर बाकी की दो नहरें किसानों को रुलाती ही रह गयीं. सैकड़ों किसानों के खेतों में धूल उड़ रही है और पलायन के हालात हैं. कभी ऐसा नहीं हुआ कि सिंचाई विभाग के किसी जिम्मेदार अभियंता ने दौरा करके यह जानने की कोशिश की हो कि आखिर वस्तुस्थिति क्या है.

इधर बुंदेलखंड से जुड़े जिलों में भी फसल तबाह हो चुकी है. यहाँ आये दिन किसी न किसी किसान के फांसी पर झूल जाने या फिर हार्ट अटैक से मौत हो जाने की ख़बरें आती रहती हैं. ज़रा तमाशा देखें कि अकेले चित्रकूट जिले में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए जिन छोटे छोटे चेक डैम का निर्माण हुआ, वे एक भी बरसात नहीं झेल सके. बालू की दीवारें पानी को रोकने के बजाय खुद पानी में बह गयीं. जांच के बड़े बड़े वादे हुए, लेकिन दोषियों का आज तक कुछ नहीं बिगड़ा. गरीब किसान आज भी जहां का तहां है.

एक संकट यह भी है कि जिस मनरेगा को गाँवों की काया पलटने वाली स्कीम बताया जा रहा है, वह प्रधानों, विकास अधिकारियों की चेरी मात्र बनकर रह गयी है. सरकार भले ही इस योजना की वाहवाही करने में जुटी है, पर इसमें मची लूट के किस्से कहीं भी देखे सुने जा सकते हैं. मनरेगा के जिस बजट से छोटी नहरों की सफाई कराई जा सकती थी, वह भी नहीं हुई. कोई पूछने वाला नहीं है कि आखिर यह अंधेर क्यों और कैसे हो रही है.

और अपना मीडिया...इसकी क्या तारीफ़ की जाए. यह तो बीफ, सांप्रदायिक वैमनस्य, चुनाव, नेताओं के बेतुके बोल और इसी तरह के बेहूदा प्रसंगों में वक्त जाया करने में लगा है. बहुतों को बुरा लग सकता है, लेकिन मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि गाँवों के किसानों और गरीबों की दुर्दशा की कहानी साप्ताहिक क्रम से भी प्रसारित करके वह बड़ा काम कर सकता था. लेकिन यह नहीं होने वाला. उसे अरहर की दाल और प्याज की बढ़ती कीमतों से तो मतलब है, लेकिन इन जिंसों को उपजाने वाले किसानों की फटेहाली से कोई लेना देना नहीं. हद है.....

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