लीजिए साहब, दिल्ली में चुनाव के भोंपू खामोश हो गए. बड़ा शोर हुआ, ‘दुश्मन’ को उसकी औकात बताने के लिए एक से बढ़कर एक शक्तिशाली ‘मिसाइलें’ दागी गयीं. कीचड़ उछालने की ऐसी प्रतिस्पर्धा चली कि देखने वालों ने दांतों तले उंगली दबा ली. मीडिया ने भी ‘आग’ में खूब ‘घी’ डाला. एक से बढ़कर खबरिया ‘ज्योतिषी’ परदे पर आए, अपना अपना ज्ञान बघारा और अंतर्ध्यान हुए. अब मतदाताओं की बारी है, उनके फैसले का सबको इंतज़ार है.
यह भी साफ़ हुआ कि यह फैसला मीडिया के एक तबके की भी खासी खबर लेने वाला है. वजह यह कि चुनावी सर्वेक्षणों में अबकी बार कुछ अलग ही रुझान प्रदर्शित हुए हैं. एक तबका तो एक पार्टी को प्रचंड बहुमत दिलाता फिर रहा है तो दूसरा कांटे के मुकाबले में उस प्रचंड बहुमत की दावेदार पार्टी को पीछे बता रहा है. दोनों ही तरह के सर्वेक्षणों में इतना फर्क है कि किसी न किसी को तो तटस्थ लोगों के सवालों के जवाब देने ही होंगे. अरे भाई, सर्वे का यह कैसा विज्ञान है कि नतीजों में इतना ज्यादा फर्क आये.
खैर, लगे हाथ अब जरा दिल्ली में दौलत के खेल पर भी निगाह डाल लें. देश के एक उद्योग मंडल के आकलन पर विश्वास किया जाए तो कह सकते हैं कि यहाँ जबरदस्त प्रचार अभियान के दौरान राजनीतिक दलों ने 150 से 200 करोस रूपए तक खर्च कर डाले हैं. वर्ष 2013 के चुनावों के मुकाबले यह रकम 30-40 फीसद तक अधिक है. वाणिज्य एवं उद्योग मंडल एसोचैम ने कहा है कि उम्मीदवारों के बजाय राजनीतिक दलों ने आगे बढ़कर बड़े पैमाने पर समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में विज्ञापन देने पर भारी खर्च किया है. प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ साथ रैलियों और घर घर पर्चे बांटने, मोबाइल सन्देश और थोक काल करने पर भी भारी खर्च हुआ है.
एसोचैम महासचिव डीएस रावत ने उद्योग संगठन के इस ताजा आकलन को जारी करते हुए कहा कि प्रमुख दलों के बड़े नेताओं के ताबड़तोड़ रैलियाँ करने और प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया पर लगातार विज्ञापन देने से पता चला है कि दिल्ली विधानसभा का यह चुनाव राजनीतिक सैलून के लिए नाक का सवाल बन गया है. रावत ने कहा कि उम्मीदवारों ने ज्यादा खर्च नहीं किया बल्कि पार्टियां अपने स्तर पर भारी खर्च कर रही हैं. वे बोले, ‘चुनाव में उम्मीदवार के स्तर पर होने वाले खर्च की तो सामा तय की गयी है, लेकिन पार्टियों के लिए खर्च की कोई सीमा नहीं है. चुनाव खर्च से जुड़े क़ानून की यह बड़ी खामी है. इस पर गौर किया जाना चाहिए. दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान टेलीविजन चैनलों, समाचार पत्रों, शहर के बस स्टैंड, चौराहों पर पोस्टर लगाने वालों, छपाईखानों, सोशल मीडिया, ट्रांसपोर्ट एजेंसियों, आतिथ्य सत्कार से जुड़े व्यवसायियों और यहाँ तक कि अन्य तमाम छोटा मोटा कारोबार करने वालों को खूब फायदा हुआ.
तस्वीर एकदम साफ़ है. जनता ठगी सी देख रही है और वोटों के जादूगर उसे अपने वश में करने के लिए हर तरह का ‘अनुष्ठान’ करने को तत्पर हैं. विडम्बना यह कि यह हाल उस दिल्ली का है जो देश की राजधानी भी है.