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सुधिंयां

11 दिसम्बर 2021

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कितना गहरा मन का सागर
        कितनी हल्की कल की परछाईं
सुधियों के मेले से लगे थे
         रात मुझे कल नींद न आई।

कैसे बीता नन्हा बचपन
         कैसे चढी डेहरी तरुणाई
कितना - - - - - - - - - -
          - - - - - - - - - - परछाईं

कैसे तुम संग मेल हुआ था
        बात ये अब तक समझ न पाई
हम तो खुद से बेपरवाह थे
        दुनिया थी अनजान पराई

तुमने ही तो समझाया था
        सब बात तुम्ही ने सिखलाई
क्या होती है प्रीत की डोरी
        आती है क्युं यूं अंगडाई

मन तो जैसे वृंदावन था
         तन तन थी बजती शहनाई
ढीठ नयन में सजी प्रतीक्षा
           देह बनी जैसे अमराई

उडे पंखेरु से ये दिन भी
          और विरह की बेला आई
आंखे रो रो लाल हुंई थी
          देख जिसे रोती करुणाई

बीती बातें सपन सलोना 
           मन से अब तक भूल न पाई
कितना- - - - - - - - - - 
            - - - - - - - - -  परछाई 
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   लेखिका - ममता-यादव (प्रान्जलि काव्य) 
स्वरचित व मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित 
भोपाल - मध्यप्रदेश 
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Dr Anita Mishra

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