किस गम के गीत गाऐं ,किसको वयाँ करें।
शिकवों का जाम आखिर ,कब तक पिया करें।।
ये है यकीं कि खाक से ,मोती नहीं निकलते,
पर खाक भी न छानें, तो करें भी तो क्या करें।
हमको हुआ मयस्सर , जीवन कबाड़खाना,
मैदान में रहते है , तूफाँ से क्या डरें ।
महफूज कर लिया है, मैंने प्रत्येक पत्थर,
हर फूल के बदले में पाया है, क्या करें ।।
खुदगर्ज है जमाना, खुदगर्ज दोस्ताना ,
खुद्दार जिंदगी है , 'मोहन' की क्या करें। ।
अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर
निशानों को कहने दो , वे जो कुछ वयाँ करें।।
. ------मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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