वो दूर जाके चाँद, सितारों सा हो गया।
मैं काँच सा टूटा तो, हजारों सा हो गया।
हालांकि दरम्यां में बहुत, फासला न था,
दरिया सी जिंदगी के, किनारों सा हो गया।
इस वक्त ने कुछ जा़म, पिलाये है इस कदर,
हर कतरा जिंदगी का, शराबों सा हो गया।
वो बादशाही आँखें, ख्वाब-ए-सल्तनत का हश्र,
वीरान हवेली के , नजारों सा हो गया।
जब रोटियों की तलब में मायूसियां मिलीं,
किरदार जमाने में , गुनाहों सा हो गया।
अब तो तुम्हारे महल में, कुछ रोशनी सी है ,
कई बेगुनाह खून , चिरागों का हो गया।
ईजाद क्या किया है, इबादत का ये हुनर,
रब मंदिरों की चंद, दिवारों सा हो गया।
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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