शिद्दत से उसको ढूँढा, भटका हूँ हर जगह पर,
लेकिन न वो मिला, मुझे जिसकी तलाश है।
चल-चल के रहगुजर में, जूते घिसे और पैर भी,
मंजिल के अब तलक हम, फिर भी न पास है।
नज़रों का धोखा था वो, सादिक वफा नहीं थी,
बस शौक है ये उनका, उनका लिबास है।
खालिक की जुफ्तजू में, अब तो कारवां भी खो गया,
इस सफर-ऐ-आखिरत में, अब काफी हताश है।
रस्म-ए-दिवालियों में, कैसे दिये जलाऐं,
वो आये नहीं है अब तलक, आने की आस है।
महफिल में सबके साथ में, हँसना तो महज फर्ज है,
हकीकत हमारी दुनियाँँ, काफी उदास है।
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