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शिक्षको चुनौती स्वीकारो, भारत का भाग्य बदल डालो,

30 जून 2016

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अब उठो शिक्षको भोर हुई, कुरुक्षेत्र में जाना ही होगा ।
जो वचन दिया भारत माँ को ,करके दिखलाना ही होगा।

गांडीव उठा लो हाथों का, बध करो अँधेरी रातों का,
तुम 'ज्ञान बाण ' संधान करो, अज्ञान मिटाना ही होगा।

उस 'विश्व गुरु' भारत का फिर, दुनिया में परचम लहरा दो,
शिक्षको तरासो भारत को, यह देश बचाना ही होगा ।

संस्कृति डूबती जाती है ,उन पश्चिम के आगोशों में,
प्रण करो आज हुंकार भरो, अब चीर बढाना ही होगा ।

शिशु कर्णधार, इनको सम्हार, इस रचना का शिक्षक कुम्हार,
नव सृजन हो सके अब 'मोहन' , वह गीत सुनाना ही होगा ।

शिक्षको चुनौती स्वीकारो,  भारत का भाग्य बदल डालो,
घर घर में 'ज्ञान दिवाली' हो, हर दीप जलाना ही होगा ।

                   -----मनीष प्रताप  सिंह 'मोहन' कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त अवश्य करें।  आपकी टिप्पणियाँ हमारे लिये अति महत्वपूर्ण है।

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रचनाएँ
hindigazalgeetkavita
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गज़ल,गीत, कविता के रूप में मेरी अभिव्यक्ति को अनुभव करें। सादर।
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भारत विकासरथ की खातिर, शिक्षको सारथी बन जाओ।

1 जून 2016
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अज्ञान अंधेरी  रातों सा, इल्मी कंदील जला डालो। दूर अशिक्षा  करने को ,अब ईंट से ईंट बजा डालो।कथनी से करनी तक पहुँचो,भारत माँ के आँसू पौंछो,कंधे से कंधा मिला रहे ,और दीप से दीप जला डालो।भारत आगे बढ़ पायेगा, पहले तुमको बढना होगा,जो किले बनाए भ्रष्टों ने, तुम उनकी नीव हिला डालो।बिषबृक्ष पनपता भारत में, प

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कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।

2 जून 2016
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किये ही दे रही है, मेरे घर को आग खा़क,कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।दिवाली के हर दिये में, उदासी की झलक है,खत्म हो रहा है वक्त, उनके इंतज़ार का।लगती गमों की महफिल ,हर ढलती शाम को,छिड़ता है स्वर मधुर तब, मन के सितार का।कहने लगे सितारे , था चाँद साथ में,सो जाओ अब बदल गया है, रुख बयार का।मजबूरियों की धू

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नजरों का धोखा था वो ,सादिक वफा नहीं थी।

5 जून 2016
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शिद्दत से उसको ढूँढा, भटका हूँ हर जगह पर, लेकिन न वो मिला,  मुझे जिसकी तलाश है।चल-चल के रहगुजर में, जूते घिसे और पैर भी,मंजिल के अब तलक हम, फिर भी न पास है।नज़रों का धोखा था वो, सादिक वफा नहीं थी,बस शौक है ये उनका, उनका लिबास  है।खालिक की जुफ्तजू में, अब तो कारवां भी खो गया,इस सफर-ऐ-आखिरत में, अब काफ

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कई बेगुनाह खून , चिरागों का हो गया।

6 जून 2016
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वो दूर जाके चाँद, सितारों सा हो गया।मैं काँच सा टूटा तो, हजारों सा हो गया।हालांकि दरम्यां में बहुत, फासला न था,दरिया सी जिंदगी के, किनारों सा हो गया।इस वक्त ने कुछ जा़म, पिलाये है इस कदर,हर कतरा जिंदगी का, शराबों सा हो गया।वो बादशाही आँखें, ख्वाब-ए-सल्तनत का हश्र,वीरान  हवेली  के ,  नजारों सा हो  गय

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बंद कमरे में अकेला, और मैं करता भी क्या

8 जून 2016
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दोस्तों के इस जहां में,दोस्ती ढूँढें कहाँ,दोस्त जैसे है बहुत , पर दोस्त भी मिलता नहीं।कारवां से दूर हो ,तन्हा रहा मैं इन दिनों,वक्त की थामी सुई , पर वक्त भी रुकता नहीं।पास आती सब आवाजें, दूर ही जाती गई,एक भी तिनका बचा होता, तो मैं झुकता नहीं।हर सवेरा, शाम होकर, रात में दम तोड़ देता,टूटती उम्मीद पर अं

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तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर

9 जून 2016
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माना कि तेरे शहर का,मौसम नया तो है।मयस्सर हमारे गाँव में ,ताजा हवा जो है।तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर,मुतमईन हूँ मैं गांव में, शर्म-ओ-हया तो है ।हालांकि मेरी पहुँच से, वो दूर है  मगर ,उस आसमां से कह दो, मेरा हौसला जो है।वो चल चुके पटाखे, और बुझ चुके दिये ,पाकर किसी गरीब का, बच्चा हँसा तो है

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अरे!अब तो मत छिपाओ, उजले कफन से ढक कर (गजल)

11 जून 2016
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किस गम के गीत गाऐं ,किसको वयाँ करें।शिकवों का जाम आखिर ,कब तक पिया करें।।ये है यकीं कि खाक से ,मोती  नहीं निकलते,पर खाक भी न छानें, तो करें भी तो क्या करें।हमको हुआ मयस्सर , जीवन कबाड़खाना,मैदान में रहते है , तूफाँ से  क्या  डरें ।महफूज कर लिया है, मैंने प्रत्येक पत्थर,हर फूल के बदले में पाया है, क्य

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मेरी खुद जिंदगी, बेवफा हो गयी

13 जून 2016
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जिंदगी से खुशी सब, दफा हो गयी।मौत भी कम्बख्त अब, खफा हो गयी।उन दिनों कुछ हवाऐं, चलीं इस तरह,जिंदगी काफी हद तक, तवाह हो गयी।हमने भूलों को रस्ते, दिखाऐ मगर,राह मेरी ही मुझको ,दगा दे गयी।लोग कहते है जिसको, मेरी जिंदगी,मौत से भी  वह बदतर, सदा से रही।हम अकीदत के जल को, चढायें कहाँ,मेरी खुद जिंदगी, बेवफा

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मेरी आँखों से कागज पर,महज टपका था इक आँसू,

16 जून 2016
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वो नंगे पांव कांटों पर ,मेरा हँसकर गुजर जाना।राह में ठोकरें खाकर के ,गिरना और सम्हल जाना।मेरी आँखों से कागज पर,महज टपका था इक आँसू,नहीं मालूम है मुझको, गज़ल गीतों का बन जाना।हसीं सपने जो आँखों में ,वो तुमने ही दिखाये थे,महज़ वोटों की खातिर था,तुम्हारा रंग बदल जाना।किन्हीं मजबूर आँखों में ,उजाला भर सके

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न आयेगी.....

22 जून 2016
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एक दिन मैं बैठा आँगन मेंदीवारों के उस पार क्षितिज को देखकुछ विचार कर रहा था मन मेंतभी अचानक एक चिड़िया आयीफुदकती गाना गातीकूड़े में से कुरेद कर कुछ खातीफिर एक चिड़िया और आयीएक और आयीकुछ और आयींकुरेद कर कूड़ा वे खाने लगीमुझे उनका आना अच्छा लगाऔर उनपर दया भी आयीमैंने मुट्ठी भर दाने बिखरा दिये आँगन मेंसोचा

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शिक्षको चुनौती स्वीकारो, भारत का भाग्य बदल डालो,

30 जून 2016
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अब उठो शिक्षको भोर हुई, कुरुक्षेत्र में जाना ही होगा ।जो वचन दिया भारत माँ को ,करके दिखलाना ही होगा।गांडीव उठा लो हाथों का, बध करो अँधेरी रातों का,तुम 'ज्ञान बाण ' संधान करो, अज्ञान मिटाना ही होगा।उस 'विश्व गुरु' भारत का फिर, दुनिया में परचम लहरा दो,शिक्षको तरासो भारत को, यह देश बचाना ही होगा ।संस्क

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अन्दाज-ए-वफा सूरत से, हरगिज़ न लगाया जाये।

3 जुलाई 2016
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जिंदा लोगों को ,न फिर से, लाशों मे सुमारा जाये। ऐ खुदा खैर करो , वो लम्हा न दुवारा आये।। जलाए है आशियाने , दो पल के उजाले ने, मेरे अंधेरों में कोई दीपक, फिर से न जलाया जाये। आँखें वयान करती है , दासता -ए-मुकद्दर, आँसू पर किसी हँसी को, बाजिव न बताया जाये। अब तो जिंदगी का मकसद, मतलब परस्तियां ह

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अभिव्यक्ति मेरी: वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।

5 जुलाई 2016
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जो इंसानियत को मारे, घर-घर लहू बहाये। वो किसने 'राम' समझे, किसने 'खुदा' बनाये।। ये आतिश नवा से लोग ही, मातम फ़रोश हैं, चैन-ओ-अमन का ये वतन, फिर से न डगमगाये। घोला ज़हर किसी ने या, गलती निज़ाम की, गुनहगार इस वतन के, यूँ ही न पूजे जायें। उन्हें खून की हर बूंद का, कैसे हिसाब दें, जो आँसुऔ की कीमत, अबत

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गहरे काले अक्षरों से...

8 जुलाई 2016
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आओ चलकर देखते है, क्या लिखा है हमारे भाग्य में उन बड़े -बड़े कमरों में अपने अनुक्रमांक पर बैठकर उन सफेद पीले पन्नों में गहरे काले अक्षरों से देखते है क्या लिखा है हमारे भाग्य में .. -----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन' कृपया टिप्पणी के माध्यम से अपनी अनुभूति को व्यक्त

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अभिव्यक्ति मेरी: चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।

13 जुलाई 2016
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   फिरोजाबाद फिरोजाबाद  अभिव्यक्ति मेरी: चाँद के उजाले में, आँसू के गीत लिखता है ।

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अब खून भी बहता नहीं, और जख्म भी बढते गये ।

2 अगस्त 2016
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वक्त का हर ज़िक्र मैं, लिखता चला गया । हर रंज-ओ-ग़म को आप ही, सहता चला गया ।। इस रास्ते के दरम्यां, शायद कहीं पर छाँव हो, 'मोहन ' भरम की धूप में, जलता चला गया ।। उन बस्तियों में आग सी, लगती चली गयी, हवा में मेरा ज़िक्र कुछ, बहता चला गया ।। सुकूं और मेरे दरम्यां, मुद्दत के फासले है, थी साजिश-ए-किस्

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धुँधली होती तस्वीर

2 सितम्बर 2016
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रेगिस्तान के किसी कोने में बनाया हुआ है मैंने अपना एक छोटा सा घर जिसमें चारो ओर खिड़कियाँ और दरवाजे ही हैं। उस घर में लगा रखी है एक तस्वीर और एक गुलदस्ता हवा के आवारा झोके उसमें होकर यूँ निकल जाते हैं जैसे कि कुछ है ही नहीं और छोड़ जाते है साथ लायी हुई धूल की चादर जो कि परत दर परत छायी जा रही है

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अभिव्यक्ति मेरी: मैं आग को पीता गया बस आजमाने के लिये

15 नवम्बर 2017
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खुद की मौत पर तन्हा था मैं, मांतम मनाने के लिये।केवल ओठ ही हिलते है, अब बस गुनगुनाने के लिये।।हालांकि मेरे हाथ से, गिर कर जो टूटा काँच सा,अरमान ही तो था मेरा, बस मुस्कुराने के लिये।।उस शाम की महफिल में ,बस दो चार ही तो लोग थे,मैं था , मेरे ग़म थे, दो आंसू बहाने के ल

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प्यार का बंधन

17 दिसम्बर 2020
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अर्पण आज तुमको हैं जीवन भर की सब खुशियाँपल भर भी न तुम हमसे जीवन में जुदा होनारहना तुम सदा मेरे दिल में दिल में ही खुदा बनकरना हमसे दूर जाना तुम और ना हमसे खफा होना अपनी तो तमन्ना है सदा हर पल ही मुस्काओसदा तुम पास हो मेरे ,ना हमसे दूर हो पाओतुम्हारे साथ जीना है तुम्हारें साथ मरना हैतुम्हारा साथ काफ

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