माना कि तेरे शहर का,मौसम नया तो है।
मयस्सर हमारे गाँव में ,ताजा हवा जो है।
तकब्बुर है शहर वालों को,खुद के शऊर पर,
मुतमईन हूँ मैं गांव में, शर्म-ओ-हया तो है ।
हालांकि मेरी पहुँच से, वो दूर है मगर ,
उस आसमां से कह दो, मेरा हौसला जो है।
वो चल चुके पटाखे, और बुझ चुके दिये ,
पाकर किसी गरीब का, बच्चा हँसा तो है।
अपने स्वार्थों के साँचों में,खुदाओं को ढालकर,
करता गुनाह आदमी , लाँछन खुदा को है ।
इन्सानियत की मौत पर,कोई आँख तक न गीली हो,
'मोहन'नये जमाने को, कुछ हो गया तो है ।
कभी शब्द रो दिए, तो कभी रो गईं मेरी आँखें,
ग़म और मेरे दरम्यां, कुछ सिलसिला तो है
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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