वो नंगे पांव कांटों पर ,मेरा हँसकर गुजर जाना।
राह में ठोकरें खाकर के ,गिरना और सम्हल जाना।
मेरी आँखों से कागज पर,महज टपका था इक आँसू,
नहीं मालूम है मुझको, गज़ल गीतों का बन जाना।
हसीं सपने जो आँखों में ,वो तुमने ही दिखाये थे,
महज़ वोटों की खातिर था,तुम्हारा रंग बदल जाना।
किन्हीं मजबूर आँखों में ,उजाला भर सके तो सुन,
नहीं तुझको जरूरी अब,कहीं मंदिर तलक जाना।
मिरे खेतों को पानी का ,भरोसा दे गया बादल,
किसानों की यही किस्मत, वो बारिश का मुकर जाना।
यकीनन ये शरारत भी, तो पतझड़ की रही होगी,
मेरी उम्मीद की कलियों को, चुपके से कुतर जाना।
हमारी आँख में आँसू , उदासी गर नहीं होते,
तो मुमकिन ही नहीं 'मोहन',गज़ल गीतों का ढल पाना।
-----मनीष प्रताप सिंह 'मोहन'
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