खुद की मौत पर तन्हा था मैं, मांतम मनाने के लिये।केवल ओठ ही हिलते है, अब बस गुनगुनाने के लिये।।
हालांकि मेरे हाथ से, गिर कर जो टूटा काँच सा,
अरमान ही तो था मेरा, बस मुस्कुराने के लिये।।
उस शाम की महफिल में ,बस दो चार ही तो लोग थे,
मैं था , मेरे ग़म थे, दो आंसू बहाने के लिये ।।
वक़्त की रफ्तार में ,मैं भी मिटूंगा, जख़्म भी,
ये लफ़्ज ही रह जायेंगे, मरहम खपाने के लिये।।
मुझको अँधेरी राह में, दीपक दिखाना छोड़ दो,
ये तज़ुर्वा है मेरा, खुद से आँसू छिपाने के लिये ।।
मुझे राह का अन्दाज था, काँटे बहुत होंगे वहाँ,
मैं आग को पीता गया, बस आजमाने के लिये ।।
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