किये ही दे रही है, मेरे घर को आग खा़क,
कब तक करें भरोसा, परवरदिगार का।
दिवाली के हर दिये में, उदासी की झलक है,
खत्म हो रहा है वक्त, उनके इंतज़ार का।
लगती गमों की महफिल ,हर ढलती शाम को,
छिड़ता है स्वर मधुर तब, मन के सितार का।
कहने लगे सितारे , था चाँद साथ में,
सो जाओ अब बदल गया है, रुख बयार का।
मजबूरियों की धूप में, मेरे पैर जल गये,......पूरी रचना पढने के लिए क्लिक करें
http://manishpratapmpsy.blogspot.in/2016/05/blog-post_30.html?m=0