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शहीद की विधवा

7 जुलाई 2018

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शहीद की विधवा



✒️


वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैं


पंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं,


तारकों की नींद को विघ्नित करे जो


गीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं।



ज़िंदगी की राह में रौशन रही वो


माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,


रात के अंधेर में बेबस हुई अब


जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।


जोग, ना परितज्य वो भी जानती है,


पर निरा मंगल हृदय से साजती है


रिस भरा है जीव में उसके तभी तो,


साँस में हरदम कसक सुलगा रही है।


साँस रुकनी थी, मगर तन था पराया


लाश देखी नाथ की, तब भी रही थी,


चीख भी सकती नहीं कमजोर बनकर


हार उसके प्राण की, नाज़ुक घड़ी थी।


अंत्य साँसें भी अभी कोसों खड़ी हैं,


जागती, जगकर निहारे, देखती है


कर, निहोरे जोड़कर, वंदन सहज कर,


अंत में अंतस तिरोहित ढूँढ़ती है।



दीन सी आँखें अभी सूखी नहीं हैं,


औ' उधर बदमाश चंदा झाँकता है


हाथ की लाली अभी धूमिल नहीं है,


ताक कर तिरछे, ठठाकर, खाँसता है।


दुर्दिनों पर डालकर मुस्कान कलुषित,


हेय नज़रों से ज़रा उपहास करता


क्या पता उस रात के राकेश को भी,


यातना से त्रस्त भी कुछ माँग करता।


सर उठाकर आँख को मींचे कठिन सी,


माँगती अंगार, उल्का पिंड से जो


गिर रहे गोले धरा पर अग्नि दह सम,


अंब के अंबार से बुझ जा रहे वो।


वह बहुत सहमी खड़ी है ठोस बनकर,


धूल की परछाइयों सी पोच बनकर


दूर है अर्धांग उसका जो सदा को,


देश पर कुरबान है दस्तूर बनकर।



गीत गाते जा रहे हैं जो सभी ये,


दो दिनों के बाद सब भूला हुआ कल


मर मिटेंगे देश पर गर कल सभी तो,


कब कहेगा, कौन यह दस्तूर प्रति पल।


...“निश्छल”

रेणु

रेणु

प्रिय अमित----- आपके ब्लॉग पर ये हृदयस्पर्शी रचना पहले भी पढ़ चुकी हूँ पर पिछले माह बहुत व्यस्तताएं रही इस लिए टिप्पणी संभव ना हो सकी | पर आप की रचना में एक नारी के ह्रदय की दारुण स्थिति का बहुत ही मार्मिक दृश्य सजीव रूप में दिख जाता है और देश पर मिटने वाले वीर की विधवा की पीड़ा को शब्दों में बाँधना सरल कहाँ ? सचमुच प्रेरक गीतों की अवधि बहुत थोड़ी होती है उसके बाद जीवन की भयावहता ही जीवां का स्थायी रूप होता है | बहुत अच्छा लिखा आपने एकदम शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाये-- वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैं पंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं, तारकों की नींद को विघ्नित करे जो गीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं। बहुत लाजवाब !!!!!!!!!!

9 जुलाई 2018

रेणु

रेणु

प्रिय अमित ------- सबसे पहले स्वागत है -- शब्द नगरी के मेरे सहयोगी रचनाकार के रूप में| शब्द नगरी मेरे लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण मंच है| आशा है जल्द ही आपकी अचम्भित करने वाली काव्य प्रतिभा से इस मंच के लोग परिचित होंगे | आप शीघ्र ही यहाँ के प्रिय लेखकों में शुमार होयही कामना है | मेरी शुभकामनाये हमेशा की तरह आपके साथ है |

9 जुलाई 2018

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शहीद की विधवा

7 जुलाई 2018
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शहीद की विधवा✒️वीर रस, जन गण सुहाने गा रहे हैंपंक्तियों में गुनगुनाते जा रहे हैं,तारकों की नींद को विघ्नित करे जोगीत, वे कोरे नयन दो गा रहे हैं।ज़िंदगी की राह में रौशन रही वोमाँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,रात के अंधेर में बेबस हुई अबजिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।जोग, ना परितज्य वो भी जानती है,पर निर

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हश्र

17 मार्च 2019
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हश्र✒️ओस के नन्हें कणों ने व्यंग्य साधा पत्तियों पर,हम जगत को चुटकियों में गर्द बनकर जीत लेंगे;तुम सँभालो कीच में रोपे हुवे जड़ के किनारे,हम युगों तक धुंध बनकर अंधता की भीख देंगे।रात भर छाये रहे मद में भरे जल बिंदु सारे,गर्व करते रात बीती आँख में उन्माद प्यारे।और रजनी को सुहाती थी नहीं कोई कहानी,ज्ञा

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